Followers

Friday, January 20, 2012

हनुमान लीला - भाग ३

                           नहिं कलि करम न भगति बिबेकू, राम   नाम    अवलंबन    एकू
                           कालनेमि   कलि   कपट  निधानू, नाम  सुमति समरथ हनुमानू

'कलियुग में न कर्म है, न भक्ति है और न ज्ञान ही है.केवल रामनाम  ही एक आधार है.कपट की खान
कलियुग रुपी कालनेमि को मारने के लिए 'रामनाम' ही बुद्धिमान और समर्थ श्रीहनुमानजी हैं.'

मेरी  पोस्ट   'रामजन्म -आध्यात्मिक चिंतन-२'   में  श्रीरामचरितमानस  में  वर्णित  कलियुग  का
निम्न  आध्यात्मिक निरूपण  किया गया था.

                      तामस बहुत रजोगुण थोरा ,   कलि प्रभाव विरोध चहुँ ओरा

हमारे हृदय में जब तमोगुण अर्थात आलस्य, अज्ञान, प्रमाद,  हिंसा आदि  बहुत बढ़ जाये ,रजोगुण अर्थात 
क्रियाशीलता कम हो जाये,और सतोगुण यानि ज्ञान व विवेक का तो मानो लोप ही हो जाये, चहुँ  ओर विरोधी 
वृत्तियों का ही हृदय में वास हो, सब तरफ अप्रसन्नता और विरोध हो, तो कह सकते हैं हम उस समय 
'घोर 'कलियुग' में ही जी रहे है.

कलियुग  मन की निम्नतम स्थिति या अधोगति की वह  अवस्था है जिस  में सकारात्मक सोचने और
निर्णय करने की शक्ति यानि विवेक का सर्वथा अभाव होने से कोई सद्कर्म नही हो पाता. न ही मन
ईश्वर से जुड़ने अर्थात भक्ति का आश्रय ले पाता है. मन में विरोधी वृत्तियों का वास 'कालनेमि' राक्षस
के समान सदा ही धोखा देने और ठगने में लगा रहता है. 'कालनेमि'  हमारे अहंकार रुपी रावण का ही
एक सहयोगी है. जो ठग विद्या में अति निपुण है.यह  'राम नाम' का झूंठा प्रदर्शन और ढोंग  करके
हनुमान जी को भी ठगना चाहता है.परन्तु, हनुमान जी सदा सजग है,बुद्धिमान है.इसीलिए वे कालनेमि
राक्षस के कपट को समझ लेते हैं और अंतत:उसका वध कर डालते है.  सही प्रकार से नित्य सजग  'नाम
स्मरण' वीर हनुमान की तरह ही हमारी कपट और ढोंग से रक्षा करता रहता है.

मेरी पिछली पोस्ट 'हनुमान लीला - भाग २' में हमने जाना कि 'हनुमान' शब्द ने किस प्रकार से अपने अंदर
'ऊँ' कार रुपी परमात्मा के नाम  को धारण कर रक्खा है. यदि हम हृदय  में 'आकार' को धारण करते हैं,तो
अहंकार की उत्पत्ति होती है.  आकार शरीर,मन ,बुद्धि आदि किसी भी  स्तर  पर दिया जा सकता है.यदि
शरीर के आधार पर मैं स्वयं को मोटा,पतला,गोरा,शक्तिशाली,सुन्दर आदि  होने का मान दूँ तो तदनुसार ही
मेरे  अहंकार का उदभव होता है व  मैं  खुद को वैसा ही समझने लगता हूँ .इसी प्रकार मन के आधार पर सुखी,
दुखी, बुद्धि के आधार पर बुद्धिमान, तार्किक आदि होने का अहंकार होता है. पर 'हनुमान' तो किसी भी
आकार को धारण न कर केवल 'ऊँ' कार को ही धारण करते हैं.जिसका अर्थ है वे हमेशा 'ऊं ' को ध्याते हैं,
'ऊं' का भजन करते हैं,'ऊं' का ही मनन करते हैं.हनुमान इतने निरभिमानी हैं कि वे परमात्मा के ध्यान
में स्वयं को भी भूल जाते हैं.इसीलिए जाम्बवान (रीछ पति) को उनका आह्वाहन करते हुए कहना पड़ता है
             
                      कहइ  रीछपति सुनु  हनुमाना,का चुप  साधी रहेउ  बलवाना 
                      पवन तनय बल पवन समाना,बुद्धि बिबेक बिग्यान निधाना
          

'ऊँ' को ध्याने से 'ऊं' का जप करने से प्राणायाम की  स्थिति होती है , प्राण की उर्ध्व गति होती है.सांसारिक
और विषयों के चिंतन से प्राण की अधोगति होती है.क्यूंकि तब 'साँस' विषमता को प्राप्त  होता रहता है.
परन्तु , जब 'ऊँ' का उच्चारण किया जाता है तो जितनी देर  या लम्बा हम 'ओ' बोलते हैं , शरीर से कार्बन
डाई ऑक्साइड (CO2) उतनी ही अधिक बाहर निकलती है. जैसे ही 'म' कहकर 'ओम्' का उच्चारण पूर्ण कर
लिया जाता है , इसके बाद लंबी   साँस के द्वारा ऑक्सीजन (O2) शरीर में  गहराई  से प्रवेश करती है.इस
पूरी प्रक्रिया में  जहाँ शरीर स्वस्थ होता है,मन और बुद्धि भी शांत होते जाते हैं. अधिकतर मन्त्रों  में  'ऊँ' का
सर्वप्रथम होने का यही कारण है कि 'ऊँ' परमात्मा का आदि नाम है तथा प्राण को हमेशा 'उर्ध्व' गति प्रदान
करता है.इसीलिए तो हनुमान 'ऊँ' को सैदेव हृदय में धारण किये हुए हैं.कहते हैं जब उनसे पूछा गया कि
'सीता राम' कहाँ हैं तो उन्होंने अपना सीना फाड़ कर सभी को 'सीता राम' के दर्शन करा दिए.'सीता' यानि
परमात्मा की परा भक्ति , राम यानि 'सत्-चित-आनन्द' परमात्मा सदा ही उनके हृदय में विराजमान हैं.

हनुमान की भगवान के प्रति अटूट  शरणागति सभी के लिए अनुकरणीय है.शरणागति का सरलतम
अर्थ है 'आश्रय'की अनुभूति.दुनिया का ऐसा कोई जीव  नही है जिसको आश्रय या सहारे की आवश्यकता
न हो.परन्तु आश्रय किसका ?यह बात अलग हो सकती है.भविष्य की अनिश्चितता के कारण प्राय:  सभी
के मन मे संदेह,भय,असुरक्षा घर किये रहते हैं.यदि सही आश्रय मिल जाता है तो व्यक्ति निश्चिन्त सा हो
जाता है.सांसारिक साधन कुछ हद तक ही सहारा देते हैं,अत: वे सापेक्ष (relative)  हैं.जब तक समुचित
सहारे का अनुभव नही होता,मन अशांत होता रहता है.ईश्वर का आश्रय होने से चित्त में आनन्द का
आविर्भाव होता है,चित्त में निश्चिन्तता आती है. हनुमान  हमेशा निश्चिन्त हैं ,क्यूंकि उनका आश्रय
'राम' हैं, जो निरपेक्ष(absolute) है,स्थाई  और चेतन आनन्द  है,शरणागत वत्सल है.

समस्त अनिश्चिंतता,भय संदेह ,असुरक्षा का कारण 'मोह' अर्थात अज्ञान है,अज्ञान के साथ अभिमान
अर्थात यह मानना कि मुझे किसी आश्रय की आवश्यकता नही है अत्यंत शूलप्रद और कष्टदायी होता है.
रावण को लंका दहन से पूर्व समझाते हुए इसलिये हनुमान जी कहते हैं.
                                       
                                        मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान 
                                        भजहु  राम  रघुनायक  कृपा  सिंधु भगवान 

शस्त्र और शास्त्र दोनों के धनी श्री गुरू गोविन्द सिंह जी भी सुस्पष्ट शब्दों में कहते हैं:-
                                           
                                                सबै  मंत्रहीनं   सबै    अंत कालं 
                                                भजो एक चित्तं  सुकालं कृपालं 
                            'जब अंत समय आता है तो सभी मंत्र निष्फल हो जाते हैं,
                             इसीलिए मन लगाकर  कृपा सिंधु प्रभु का भजन  करो.'

यदि हृदय में मोह और अभिमान छोड़ प्रभु को धारण कर हनुमान जी की तरह प्रभु का भजन किया
जाये तो कलि युग रुपी कपट की खान कालनेमि हमारा  कुछ भी बिगाड नही सकता है.

आप सभी सुधिजनों का मैं दिल से आभार व्यक्त करता हूँ कि आपने मेरी हनुमान लीला की पिछली
दोनों पोस्टों ('हनुमान लीला-भाग १' तथा 'हनुमान लीला - भाग २') को मेरी लोकप्रिय (popular) पोस्टों
में लाकर  प्रथम व द्वितीय स्थान पर पहुँचा दिया है.आशा है आप मेरी इस पोस्ट पर भी  अपने प्यार,
सहयोग और सुवचनों  के द्वारा   मेरा उत्साहवर्धन अवश्य करेंगें.यदि आप सभी की अनुमति और परामर्श
हो तो अगली कड़ी भी मैं हनुमान लीला पर ही आधारित रखना चाहूँगा.

आप सभी को नववर्ष की शुभकामनाएँ,मकर सक्रांति की शुभकामनाएँ और आनेवाले गणतंत्र दिवस की
बहुत बहुत शुभकामनाएँ.