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Monday, December 31, 2012

नववर्ष की शुभकामनाएँ

मुझे बहुत ही हार्दिक संतोष और  प्रसन्नता मिली कि मेरी स्वस्थता के लिए आप सभी सुधि जनों ने
मुझे   शुभकामनाएँ दी. इसके लिए मैं आप सभी का दिल से आभारी हूँ और हृदय से कामना
करता हूँ कि नव वर्ष में हम सभी विषाद से सर्वथा मुक्त हो आनन्द ,शान्ति और  उन्नति की ओर
निरंतर अग्रसर हो.मुझ से जो भी भूल  या त्रुटियाँ  हो गयी हों उन सब के लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूँ.

मेरी आप सभी को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ.

राकेश कुमार.

Wednesday, October 31, 2012

अल्पकालीन विराम

अपनी कुछ अस्वस्थता के कारण  मैं ब्लोगिंग  में सक्रिय  रहने में  स्वयं को असमर्थ
पा रहा हूँ.इसलिए अभी ब्लोगिंग से अल्पकालीन विराम ले लेना ही बेहतर समझता
हूँ. मैं अपने उन सुधिजनों का क्षमाप्रार्थी हूँ जिन्होंने मुझ से नवीन पोस्ट लिखने  का आग्रह
किया था अथवा जिनको मेरी पोस्ट का इन्तजार है.स्वस्थ होने पर आप सब के समक्ष
पुन: उपस्थित हूँगा.

सभी सुधि जनों को  दीपावली की बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनाएँ.

Sunday, September 30, 2012

हनुमान लीला भाग-६

                                            बुद्धिहीन तनु  जानकर, सुमिरौं   पवन  कुमार 
                                            बल बुधि  बिद्या देहु मोहिं,हरहु कलेस बिकार 

मैं  स्वयं को बुद्धिहीन तन जानकर पवन कुमार  हनुमान जी का स्मरण करता हूँ जो मुझे   बल,बुद्धि और विद्या प्रदान कर मेरे समस्त क्लेश विकारों को हर लें.

साधरणतः जीवन का परम लक्ष्य और उसको पाने का साधन न जानने के कारण हम  'मूढ़' अर्थात बुद्धिहीन ही होते हैं.बुद्धिमान वही है जिसको  जीवन का लक्ष्य और उस ओर चलने के साधन का भलीभांति  पता है और जो परम् लक्ष्य की तरफ चलने के लिए निरंतर प्रयत्नशील भी है.

परन्तु, परम लक्ष्य की ओर चलना इतना आसान नही है.इसके लिए  बल,बुद्धि,विद्या का प्राप्त होना और क्लेशों का हरण होते रहना अत्यंत आवश्यक है.यह सब  हनुमान जी, जो  वास्तव में 'जप यज्ञ'  व 'प्राणायाम' का साक्षात ज्वलंत  स्वरुप ही हैं, के  स्मरण और अवलम्बन से  सरलता से सम्भव  होता है.

हनुमान लीला भाग-५  में हमने हनुमान लीला के सन्दर्भ में श्रीमद्भगवद्गीता के निम्न श्लोक की व्याख्या का प्रयास किया था:-

                                        निर्मानमोहा  जित संगदोषा,    अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः
                                        द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदु:खसंज्ञैर ,गच्छ्न्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् 

श्रीमद्भगवद्गीता में परम् लक्ष्य को ही 'पदमव्ययं' (पदम् +अव्ययं)  यानि  कभी भी व्यय न होने वाले  पद  को कहा  गया है.यह वास्तव में 'सत्-चित-आनन्द' या राम को पा जाने की स्थिति ही है.पदमव्ययं की तरफ  'मूढ़' होकर कदापि भी नही चला जा सकता. इसके लिए  'अमूढ़ ' होना परम आवश्यक है.इसीलिए तो उपरोक्त
श्लोक में कहा गया है 'गच्छन्ति + अमूढाः  पदम्  अव्ययं  तत्'  यानि 'अमूढ़' ही कभी क्षीण न होने वाले उस 
अव्यय पद की ओर जाते हैं'.

श्रीमद्भगवतगीता में 'मूढ़ता'  की विभिन्न स्थितियों का जिक्र हुआ है.जैसे कि

'विमूढ' -  जिसमें विवेकशक्ति लगभग शून्य हो.

'मूढ़'     - जो थोड़ी बहुत विवेक शक्ति  रखता हो, परन्तु जो अपनी मूढता को  पहचानने में असमर्थ हो.      
             
'सम्मूढ' - जो मूढ़ तो हो परन्तु अपनी मूढता का आत्मावलोकन कर सके.

जैसा कि अर्जुन ने भगवान कृष्ण की  शरण में आने से  पूर्व  'कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः, पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः' कहकर किया.अर्जुन ने अपना आत्मावलोकन  करने के पश्चात स्वीकार किया कि वह कायरतारूपी दोष से ग्रसित है और धर्म को न  जानते हुए 'सम्मूढ' ही है,इसलिए वह भगवान कृष्ण से 'श्रेष्ठ और निश्चित (Permanent)कल्याणकारी' मार्ग बतलाने की  याचना करता है.

अमूढ़  -  जिसकी मूढ़ता सर्वथा समाप्त हो गई है.यानि जो विवेक शक्ति से संपन्न हो जीवन के परम
              लक्ष्य को और उस ओर जाने के साधन को भलीभाँति जानता है.

हनुमान जी की भक्ति से हम  विमूढ़  से मूढ़ , मूढ़ से 'सम्मूढ' और 'सम्मूढ' से  'अमूढ़ ' होकर 'गच्छ्न्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्' यानि जीवन के परम लक्ष्य की ओर जाने का सच्चा और सार्थक प्रयास कर सकते हैं. याद रहे अर्जुन ने भी अपने रथ पर कपिध्वज को ही धारण किया था,जिस कारण वह श्रीमद्भगवद्गीता रुपी दुर्लभ अमृत ज्ञान का रसपान कर सका.

निर्मान,अमोहा, जित्संग दोषा,अध्यात्म नित्या की व्याख्या हमने 'हनुमान लीला भाग-५' में की थी.सुधिजन चाहें तो हनुमान लीला भाग-५ का पुनरावलोकन कर सकते हैं. यहाँ मैं इतना स्पष्ट करना चाहूँगा 'निर्मान' होना अपने को ही मान देने की प्रवृति  से सर्वथा मुक्त हो जाना है. क्यूंकि जब हम स्वयं को कोई मान देते हैं और दुसरे उस मान को अनदेखा कर कोई मान नही देते हैं या उससे कम मान देते हैं तो हम 'अपमानित' महसूस कर सकते हैं और हममें क्रोध या  'Inferiority complex' का संचार हो जाता है.इसी प्रकार यदि हमारे स्वयं के दिए हुए मान से दुसरे हमें अधिक मान देते हैं तो हम अपने को 'सम्मानित' महसूस कर सकते हैं जिससे हममें 'अहंकार' या 'Superiority complex' का संचार हो जाता है. Inferiority या  Superiority complex दोनों ही अध्यात्म पथ में बाधक हैं. परम श्रद्धेय हनुमान जी ने लंका में विभीषण से मित्रता करते वक़्त  उनके साधू लक्षण को पहचानते हुए 'एही सन हठ करिहऊँ पहिचानी' के principle का  अवलंबन किया और  'Superiority complex' का सर्वथा  त्याग करते हुए कहा 'कहहु कवन मैं परम कुलीना,कपि चंचल सबहीं बिधि हीना'.  इसी प्रकार राक्षसों द्वारा बाँधे जाने,लात घूंसे खाते घसीट कर ले जाते हुए भी उन्होंने 'Inferiority complex' का सर्वथा त्याग करके  मन बुद्धि को अपने रामदूत होने के कर्म को करने में यानि 'रावण से मिलने व उसको रामजी  का सन्देश देने ' के लक्ष्य पर ही केंद्रित किये रखा.  

आईये अब उपरोक्त श्लोक में वर्णित  शेष तीन साधनाओं ( विनिवृत्तकामाः, द्वन्द्वैर्विमुक्ताः, सुखदु:खसंज्ञैर  ) की व्याख्या करने की कोशिश करते हैं :-

 विनिवृत्तकामाः -  

परम  अव्ययं पद की ओर अग्रसर होने के लिए हर प्रकार की सांसारिक कामना से   विनिवृत्त होना अति आवश्यक  है.विनिवृत्त कामना का भोग करने से नही हुआ जा सकता बल्कि इससे कामना और भी भड़क उठती है.छोटी कामना का शमन उससे बड़ी,अच्छी और प्रबल कामना को अर्जित करके किया जा सकता है.सत् चित आनन्द को  पाने की कामना जब सर्वोच्च हो अत्यंत प्रबल हो जाती है तो चित्त में सांसारिक कामनाओं का वेग व प्रभाव स्वयमेव ही घटने लगता है.इसलिए  विनिवृत्तकामाः होने के लिए  पदम अव्ययं पद के लक्ष्य को ध्यान  में रखते हुए उसी को पाने की निरंतर कामना करते रहना होगा. 

 द्वन्द्वैर्विमुक्ताः  - 

हृदय में द्वन्द की स्थिति से मुक्ति पाना  अत्यंत आवश्यक है.जब यह करूँ यह न करूँ की स्थिति होती है तो लक्ष्य की ओर अग्रसर होना बहुत ही मुश्किल होता है.इसलिए श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है  'व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह' यानि असली व्ययसाय करने वाली बुद्धि एक ही होती है,जो कि निश्चयात्मक  कहलाती  है.बुद्धि का असली व्यवसाय है सद विचार करना , सत्-चित-आनन्द का सैदेव चिंतन करना.Temporary या क्षणिक आनन्द का चिंतन बुद्धि को अव्यवसायी बना देता  है. क्यूंकि Temporary आनन्द अनेक और अनंत हो सकते है,जिससे हृदय में द्वन्द की स्थिति पैदा हो जाती है.परन्तु Permanent आनन्द केवल एक   ही होता है,जिसे सत्-चित आनन्द के नाम से जाना जाता है.हर चिंतन कर्म में जब सत्-चित-आनन्द की प्राप्ति का ध्येय रह जाता है तो द्वंदों से मुक्ति  मिलना आसान होता जाता   है.

सुखदु:खसंज्ञैर    -  

जीवन में सुख दुःख की स्थिति कभी भी एक सी नही रहती.जब सब कुछ मन के अनुकूल होता है तो सुख का 
अनुभव होता है और जब भी कुछ मन के प्रतिकूल होता है तो दुःख का अनुभव होता है. अमूढ़  अपने मन की स्थिति को समझ कर मन में परिवर्तन आसानी से कर लेता है. वह मन की प्रतिकूलता को अपने सद-चिंतन से अनुकूलता में परिवर्तित करना जानता है.सुख में वह प्रमादित नही होता और दुःख में भी वह परमात्मा की  किसी छिपी सीख का ही अनुभव करता हुआ सुख का ही अनुभव करता  है. इस प्रकार परम अव्ययं पद की यात्रा अमूढ होकर सुख दुःख का संग लेते हुए धैर्यपूर्वक करनी होती है.  


जैसा की उपरोक्त श्लोक  में बताया गया है उपरोक्त सभी साधनाओं में असीम बल,व्यवसायात्मिका बुद्धि,सद विद्या की प्राप्ति और समस्त कलेशों का हरण होते रहने की परम आवश्यकता है.हनुमान लीला भाग-१,
हनुमान लीला भाग-२ ,हनुमान लीला भाग-३,  हनुमान लीला भाग-४हनुमान लीला भाग-५ और इस पोस्ट  के माध्यम से मैं हनुमान जी का ध्यान करते हुए यही प्रार्थना  करता हूँ कि वे हम सब को  'अमूढ़' बनाकर हम में वांछित बल,बुद्धि,विद्या प्रदान कर हमारे समस्त क्लेशों का हरण कर हमें पदम् अव्ययं पद यानि  राम,पूर्णानन्द की  प्राप्ति की ओर अग्रसर करें.क्योंकि हनुमान जी के लिए कुछ भी दुर्लभ नही है.


                                             दुर्गम काज जगत के जेते ,सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते 
                                             राम  दुआरे तुम रखवारे, होत  न  आज्ञा  बिनु पैसारे 

आशा है हम सब जप यज्ञ और प्राणायाम का आश्रय लेकर हनुमान जी का दामन सदा ही थामें रखेंगें.

                                                                     jai Hanumaan 
                                                                       जय श्री राम
                                                                    Jai Shri Ram
                                                                       जय हनुमान 

                                               






Sunday, August 5, 2012

फालोअर्स और ब्लोगिंग

मेरी पिछली पोस्ट  'हनुमान लीला भाग-५'  में  प्रेम सरोवर जी और डॉ. टी एस दराल जी  ने मुझे  विषयान्तर  और विषय में विविधता लाने की सलाह दी है. मुझे लेखन का अधिक अभ्यास नही है.अभी तक जो विषय मुझे दिल से  प्रिय है, उसी पर मैंने अपनी सोच आप सभी सुधि जनों के समक्ष रक्खी और आप सुधि जनों ने  उसका स्वागत  ही नही किया बल्कि सुन्दर टिप्पणियों से  मेरा भरपूर उत्साहवर्धन भी किया है . 'हनुमान लीला' की अगली कड़ी आपके समक्ष प्रस्तुत करने से पहले,मेरा विचार है कि इस बार  कुछ विषयान्तर कर लिया जाये .

इस पोस्ट में मैं 'ब्लोगिंग में 'फालोअर्स' का क्या महत्व है'  पर मैं आप सभी के विचार जानना चाहूँगा.

मई २०१२ में मुझे अमेरिका जाने का अवसर प्राप्त हुआ था. मैं सरू सिंघल जी के ब्लॉग 'Words' का फालोअर
और रीडर रहा हूँ,जो अमेरिका में न्यू जर्सी में रहती हैं.मैं  अमेरिका की  प्रमुख  हिंदी चैनल 'ITV'  के Director अशोक व्यास जी के ब्लॉग Naya Din Nayee Kavita का भी फालोअर और रीडर हूँ,जो न्यूयॉर्क  में रह रहे हैं.मैंने अपने अमेरिका के प्रोग्राम की सूचना जब सरू सिंघल जी और अशोक व्यास जी को दी तो दोनों ने ही मेरे अमेरिका आने का दिल से स्वागत किया  और अमेरिका में हम तीनों को न्यूयॉर्क में  मिलने का सुअवसर मिला.इस मिलन में अशोक व्यास जी ने सरू जी और मुझ से हिंदी  ब्लोगिंग पर अपने विचार और अनुभव प्रस्तुत करते हुए ITV  चैनल के लिए एक प्रोग्राम शूट करने का प्रस्ताव किया,जिसके फलस्वरूप ३१ मई २०१२ को सरू जी और मुझे   ब्लोगिंग के बारे में अपने विचार और अनुभव प्रस्तुत करने का ITV चैनल पर सुनहरा  मौका मिला. इसका श्रेय मैं ब्लोगिंग में अपनी 'फालोइंग' और 'रीडिंग' को ही देना चाहूँगा.

क्योंकि सरू जी और अशोक जी के ब्लोग्स की फालोइंग से ही समय समय पर मैं  इनके द्वारा लिखी गयी पोस्ट पढ़ पाया और फिर आपसी विचारों के आदान प्रदान से मुझे निकटता और घनिष्ठता का अनुभव हुआ..

मेरे और सरू जी के  इंटरव्यू का यू ट्यूब लिंक    http://youtu.be/IcWHN6UzHKI  अशोक व्यास जी  ने
दिया है.जिसका अवलोकन आप सभी सुधिजन कर सकते हैं.इस इंटरव्यू में मैंने और सरू जी ने
'ब्लोगिंग में फालोअर्स की महत्ता' के बारे में भी अपने अपने विचार  प्रकट किये हैं. यह इंटरव्यू करीब
२५-२६ मिनिट का है. जो भी सुधिजन इसे पूरा देखना चाहें वे पूरा देखें.लेकिन जिन के पास समय का
अभाव है उनसे मेरा अनुरोध है कि वे अंतिम के १० मिनिट का इंटरव्यू अवश्य देखें.

इस इंटरव्यू पर निधि जी ने उक्त यू ट्यूब लिंक पर अपने निम्नलिखित विचार प्रस्तुत किये हैं.

Readers are a subset of Followers only. Followers like what you write on your blog, no matter how these followers were made...among these, there are some genuine ones who truly like your style of writing & want to keep themselves up-to-date about your blog. They may not read you due to various constraints (time, language). They can't be totally ignored and disregarded. After all, a superstore's popularity is determined not only by buyers but by the footfalls, window shoppers & loiterers too!


किसी भी ब्लॉग को 'रीडिंग' करने में उसके 'फालोइंग' करने से बहुत सुविधा हो जाती है.मेरी समझ में किसी भी  ब्लॉग पर बहुत से फालोअर्स को देखकर उस ब्लॉग को सम्मानित दृष्टि से भी देखा जाता है. ब्लॉग के अधिकतर रीडर्स 'फालोअर्स' में से ही होते हैं.यह जरूरी नही है कि सभी फालोअर्स हमेशा 'रीडर'  बने रहें.इसके बहुत से कारण हो सकते हैं. फालोअर्स के पास समयाभाव, फालोअर्स के ब्लॉग पर ब्लोगर का  न जा पाना,फालोअर्स की  रूचि में परिवर्तन होना,पोस्ट की भाषा और विषय को फालोअर्स द्वारा न समझ पाना, ब्लोगर  और फालोअर्स के बीच कोई मतभेद हो जाना आदि आदि.

मुझे अपने ब्लॉग के सभी फालोअर्स बहुत  अच्छे लगते हैं.हालाँकि न तो  सभी फालोअर्स के ब्लोग्स पर मैं जा पाता हूँ और न ही सभी फालोअर्स मेरे ब्लॉग पर आ पाते हैं,परन्तु फिर भी मुझे मेरे फालोअर्स  प्यारे  है.रीडर्स और फालोअर्स दोनों के बढते रहने से मेरा उत्साहवर्धन होता है.फालोअर्स मेरे लिए सम्मानित अतिथि हैं,जिनको अपने ब्लॉग पर देख कर मुझे  हर्ष होता है.स्वस्थ ब्लोगिंग की दृष्टि से क्या फालोअर्स को बिलकुल नजरअंदाज किया जाना  चाहिये ? क्या फालोअर्स  जो रीडर नही हैं को भी रीडर बनने के लिए, यदि  संभव हो सके, प्रोत्साहित नही किया जाना चाहिये ? क्या रीडर्स को फालोअर्स बनने के लिए आमंत्रित नही किया जाना चाहिये ? क्या फालोइंग का आमंत्रण देने में कोई हानि है?मेरी समझ में तो ब्लोगिंग बिना फालोइंग और रीडिंग  के अधूरी सी ही है.

सरू जी , मेरे और निधि जी के विचार आपके समक्ष प्रस्तुत हैं. सरू जी के  पाठकों ने अपने अपने विचार उनकी पोस्ट   "Discussion on Blogging on ITV Gold": पर प्रस्तुत किये हैं.

'ब्लोगिंग  में फालोअर्स का  क्या महत्व  है' पर आप सुधि जनों के  विचार और अनुभव भी  मैं अपनी इस पोस्ट पर विशेष रूप से जानना चाहूँगा.

कृपया, अपने  बहुमूल्य विचारों और अनुभवों से   उचित  मार्गदर्शन  कीजियेगा.
.


  

Friday, June 29, 2012

हनुमान लीला भाग-५

                         जय जय जय हनुमान गोसाँई, कृपा करहु गुरुदेव  की नाईं

मेरी पोस्ट ' हनुमान लीला भाग -१'  में हनुमान जी के स्वरुप का चिंतन करते हुए मैंने लिखा था

' हनुमान जी  वास्तव में 'जप यज्ञ'  व 'प्राणायाम' का साक्षात ज्वलंत  स्वरुप ही हैं.साधारण अवस्था में  हमारे  मन, बुद्धि,प्राण अर्थात हमारा अंत:करण  अति चंचल हैं जिसको कि  प्रतीक रूप मे हम वानर या कपि भी 
कह सकते हैं. लेकिन जब हम 'जप यज्ञ'  व  'प्राणायाम ' का सहारा लेते हैं तो  प्राण सबल होने लगता है. 


'हनुमान लीला भाग -२' में यह चर्चा की थी  कि


जीव जब दास्य भाव ग्रहण कर सब कुछ राम को सौंप केवल राम के  कार्य यानि आनंद का संचार और विस्तार करने के लिए पूर्ण रूप से भक्ति,जपयज्ञ , प्राणायाम  व कर्मयोग द्वारा नियोजित हो राम के अर्पित हो जाता है तो उसके अंत: करण में   'मैं' हनुमान भाव  ग्रहण करने लगता है. तब वह  भी मान सम्मान से परे होता जाता है और 'ऊँ  जय जगदीश हरे  स्वामी जय जगदीश हरे ...तन मन धन  सब है तेरा स्वामी सब कुछ है तेरा, तेरा तुझ को अर्पण क्या लागे मेरा ..'  के शुद्ध  और सच्चे  भाव उसके  हृदय में  उदय हो  मानो वह हनुमान ही होता  जाता है.


'हनुमान लीला भाग -३' में मोह और अज्ञान का जिक करते हुए लिखा था 


समस्त अनिश्चिंतता,भय संदेह ,असुरक्षा का कारण 'मोह' अर्थात अज्ञान है,अज्ञान के साथ अभिमान
अर्थात यह मानना कि मुझे किसी आश्रय की आवश्यकता नही है अत्यंत शूलप्रद और कष्टदायी होता है


'हनुमान लीला भाग-४' में वर्णन किया था 


हनुमान जी का चरित्र अति सुन्दर,निर्विवाद और शिक्षाप्रद है,


भगवान की शरणागति को प्राप्त हो जाना  जीवन की सर्वोत्तम और  सुन्दर उपलब्धि है.  हनुमान की शरणागति  सर्वत्र सुंदरता का  दर्शन करानेवाली है,


उपरोक्त  बातों को अपने  मन मे रखकर , हनुमान जी का गुरु रूप में ध्यान करते हुए,इस पोस्ट में मैं श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १५  के श्लोक ५ में वर्णित तथ्यों  और व्याख्या का अवलंबन करते हुए' हनुमान लीला द्वारा कैसे परम पद यानि परमानन्द की स्थिति तक पहुँचा जा सकता है, उस साधना का उल्लेख करना चाहूँगा. परम पद या परमानन्द की यह स्थिति अव्यय है, अर्थात सदा ही बनी रहने वाली है. यह पद व्यय रहित है इसीलिए  'अव्यय' कहलाता  है ,कभी भी क्षीण होने वाला  नही है.जबकि सांसारिक हर सम्पदा या पद कभी न कभी क्षीण हो जाने वाला होता है .यहाँ तक कि 'स्वर्ग' लोक तक का सुख भी एक दिन पुन्य कर्मों के व्यय हो जाने पर क्षीण हो जाने वाला है.इसलिए इस व्यय रहित परमानन्द रुपी अव्यय  पद तक पहुंचना हम सबका ध्येय होना चाहिए.


श्रीमद्भगवद्गीता का  श्लोक निम्न प्रकार से है :-


                            निर्मानमोहा  जित संगदोषा,    अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः
                            द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदु:खसंज्ञैर ,गच्छ्न्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् 


श्लोक की टाइपिंग में हुई त्रुटि के लिए क्षमा चाहूँगा.उपरोक्त श्लोक में 'गच्छ्न्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्' के द्वारा  अमूढ़ (मूढता का सर्वथा त्याग करते  हुए)होकर 'अव्यय पद' तक पहुँचने  की साधना वर्णित  है,जिसकी व्याख्या निम्न प्रकार से की जा सकती  है.


निर्मान्-   


पहली साधना है मान रहित होने की.जैसा कि हमने जाना कि हनुमान जी सदा मान रहित हैं.हमें भी अपने 
चंचल कपि रूप चित्त को हनुमान जी का ध्यान करते हुए मानरहित करने का प्रयास करते रहना  चाहिए.
अपने को मान देने की प्रक्रिया हमें लक्ष्य से भटका देती है.हम जिस भी इष्ट का ध्यान करते हैं,उसी के  हम में 
गुण भी आ जाते हैं.हनुमान जी का ध्यान करने से 'मान रहित' होने का गुण निश्चितरूप से हम में आ जाएगा,
मन में ऐसी आस्था और विश्वास रखकर हमें 'हनुमान जी' के  मानरहित स्वरूप का निरंतर चिंतन करना  चाहिये.


अमोहा -  


दूसरी साधना है मोह रहित होने की.अर्थात 'अमोहा' होने की. हनुमान जी 'ज्ञानिनामग्रगण्यम ' व 'बुद्धिमतां वरिष्ठम्'हैं.बालकाल में ही उन्होंने 'सूर्य' को मधुर फल जान कर भक्षण कर लिया था.'सूर्य' ज्ञान का प्रतीक है.सूर्य के भक्षण  का अर्थ है उन्होंने ज्ञान विज्ञान को बाल काल में ही पूर्णतया आत्मसात कर लिया था.जैसा की 'हनुमान लीला भाग -३' की पोस्ट में भी कहा गया था कि'समस्त अनिश्चिंतता,भय संदेह ,असुरक्षा का कारण 'मोह' अर्थात अज्ञान है' इसलिए  उस अव्यय पद यानि परमानन्द की स्थिति तक पहुँचने के लिए  'मोह' से निवृत्त हो जाना  भी अत्यंत आवश्यक है. इसके लिए हमें हनुमान जी का  'ज्ञानिनामग्रगण्यम ' व 'बुद्धिमतां वरिष्ठम्' रूप ध्यान में रख कर ज्ञान अर्जन की साधना निरंतर करते रहना चाहिये.


जित संग दोषा-  


संग दोष विषयों के संग व आसक्ति के कारण उत्पन्न होता है.श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय २, श्लोक ६२ में 
वर्णित है 'ध्यायतो विषयां पुंस: संगस्तेषूपजायते ...'. विषयों का ध्यान करने वाले पुरुष का उन विषयों से संग अथवा विषयों से आसक्ति हो जाती है. जिस कारण उसके मन में  विषय की कामना उत्पन्न हो जाती हैं,कामना में विघ्न पड़ने पर क्रोध की  उत्पत्ति  होती है.क्रोध से मूढ़ भाव अर्थात अज्ञान की प्राप्ति होती है,मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है,जिससे बुद्धि अर्थात ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है.बुद्धि का नाश होने से पुरुष अपनी स्थिति से ही  गिर जाता है.अर्थात परम पद की ओर बढ़ने के बजाय वह पथ भ्रष्ट हो भटकाव की स्थिति में आ जाता है.इसलिए परम पद की यात्रा की  ओर अग्रसर होने में संग दोष को जीतना अतिआवश्यक है.हनुमान जी  'जितेन्द्रियं' व  'दनुजवनकृशानुं ' हैं अर्थात उन्होंने  अपनी  समस्त  इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की हुई है उनमें 'समस्त विकारों,अधम वासनाओं को भस्म करने   की  सामर्थ्य है. वे  विषयों का ध्यान करने के बजाय सदा राम जी (परम पद ) का ही ध्यान करते हैं.विषयों के ध्यान से चित्त को हटा परमात्मा का ध्यान करने से धीरे धीरे 'संग दोष' पर विजय प्राप्त की जा सकती है.  




अध्यात्मनित्या-  


हम अधिकतर बाहरी जगत का चिंतन करते रहते है.अपने स्वरुप का चिंतन 'अध्यात्म' के नाम से जाना जाता है.आंतरिक चिंतन  अर्थात अपने स्वरुप का नित्य चिंतन करने से भी हम परम पद की ओर  अग्रसर होते हैं.जीवात्मा परमात्मा का अंश है  अर्थात वह भी सत्-चित-आनन्द स्वरुप ही  है. परन्तु,जीवात्मा के  मन,बुद्धि और इन्द्रियाँ ब्राह्य प्रकृति में अत्यंत व्यस्त हो जाने के कारण उसे अपने स्वरुप का ध्यान लोप हो जाता है.नित्य प्रति स्वयं के स्वरुप का साक्षी भाव से  चिंतन व ध्यान  करना ही 'अध्यात्मनित्या'  है.हनुमान जी 'अध्यात्म नित्या' के कारण ही' सकलगुणनिधानं  व   वानरणामधीशं हैं. 




उपरोक्त श्लोक में वर्णित  शेष तीन साधनाओं ( विनिवृत्तकामाः, द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदु:खसंज्ञैर  की व्याख्या मैं अपनी अगली पोस्ट में करूँगा.आशा है सभी  सुधि जन अपने अपने विचार उपरोक्त साधनाओं के सम्बन्ध में अवश्य प्रस्तुत करेंगें.


पिछले महीने अमेरिका के टूर पर गया हुआ था.इस कारण और अपनी व्यस्तता के कारण यह पोस्ट देर से लिख पाया हूँ.इसके लिए सभी जिज्ञासु सुधि जनों से  क्षमाप्रार्थी हूँ, विशेषकर उनका जिन्होंने मुझे हनुमान लीला पर पोस्ट लिखने के लिए बार बार प्रोत्साहित किया है.


अमेरिका में  वहाँ की एक विख्यात हिंदी चैनल  ITV  के लिए ITV  के Director श्री अशोक व्यास जी ने श्रीमती सरू सिंघल जी (ब्लॉग 'words')  और मुझे लेकर एक इंटरव्यू लिया था. उसका youtube लिंक है     http://youtu.be/IcWHN6UzHKI 


श्रीमती सरू सिंघल (Saru singhal) जी ने अपने ब्लॉग words पर ' "Discussion on Blogging on ITV Gold": एक पोस्ट भी लिखी है.


सुधिजन इन लिंक्स का अवलोकन कर सकते हैं.मुझे जब भी समय मिलेगा तो मैं भी अलग से पोस्ट लिखूंगा.
अभी आप अपने विचार 'Followers'  की ब्लॉग्गिंग में क्या महत्ता है पर भी प्रकट कर सकते हैं. 
                                                                 .
           



              

Tuesday, April 24, 2012

हनुमान लीला भाग-4

                           महाबीर बिनवउँ हनुमाना, राम जासु जस आप बखाना  

हनुमान जी का चरित्र अति सुन्दर,निर्विवाद और शिक्षाप्रद है, उन्ही के चरित्र की प्रधानता श्रीरामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड में सर्वत्र हुई है. सुन्दरकाण्ड का पाठ अधिकतर मानस प्रेमी घर घर में करते-कराते हैं.परन्तु ,सुन्दरकाण्ड के मर्म का चिंतन न कर केवल उसका पाठ  यांत्रिक रूप से कर लेने से हमें  वास्तविक  उपलब्धि नहीं हो पाती है जो कि होनी चाहिये.

रामायण  केवल कथा ही नहीं है.इसमें कर्म रुपी यमुना,भक्ति रुपी गंगा और तत्व दर्शन रुपी सरस्वती का अदभुत और अनुपम संगम विराजमान  है. आईये इस् पोस्ट में भी हम हनुमान लीला का  रसपान करने हेतु  श्रीरामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड का तात्विक अन्वेषण करने का कुछ प्रयत्न करते हैं.

 भगवान की शरणागति को प्राप्त हो जाना  जीवन की सर्वोत्तम और  सुन्दर उपलब्धि है.  हनुमान की शरणागति  सर्वत्र सुंदरता का  दर्शन करानेवाली है,जो कि सुन्दरकाण्ड का मुख्य आधार है. इस् काण्ड का नामकरण  इसीलिए हनुमानकाण्ड  न किया जाकर सुन्दरकाण्ड किया गया  है.
सुन्दरकाण्ड में तीन प्रकार की शरणागति का विषद वर्णन  हुआ  है

(१) हनुमान की शरणागति 
(२) विभीषण की शरणागति 
(३) समुन्द्र की शरणागति.

सुन्दरकाण्ड का मर्म समझने हेतु शरणागति को समझना अति आवश्यक है.यदि ध्यान से देखा जाए तो शरणागति ही हमारे शास्त्रों का वास्तविक लक्ष्य है. श्रीमद्भगवद्गीता में  अपना उपदेश पूरा करने के पश्चात भगवान श्री कृष्ण  अर्जुन को निम्न उपदेश देते हैं .
                   
                   सर्वधर्मान्परित्यज्य  मामेकं  शरणम  व्रज 
                   अहं त्वा  सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:

सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आ जा.मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा.

यह  श्लोक  शरणागति का  गहन रहस्य प्रकट करता है.सम्पूर्ण धर्मों के त्याग का अर्थ यहाँ सम्पूर्ण धर्मों के आश्रय के त्याग से है.अपने सभी धर्मों को निष्ठापूर्वकनिभाएं यथा अपने शरीर पालन  करने का धर्म,माता पिता के प्रति संतान होने का धर्म,संतान के प्रति माता-पिता होने का धर्म,भ्राता धर्म,मित्र धर्म, देश और  लोक के प्रति देश धर्म,लोक धर्म,  आदि आदि,परन्तु, सभी धर्मों का आश्रय केवल परमात्मा यानि सत्-चित-आनन्द को पाना   हो तो ही  जीवन में भटकाव दूर हो जीव का उद्धार हो सकता है. परमात्मा की शरण में आने से जीव  निर्भय और पापरहित  होकर  सत्-चित -आनन्द में रमण करने का अधिकारी हो जाता है. परन्तु,यदि आश्रय सत्-चित-आनन्द का न होकर अन्यत्र हो तो जीवन में ठहराव नहीं  आने पाता  है, भटकन बनी रहती है और अंततः ठोकरे ही लगती हैं  .

अध्यात्म में समुन्द्र देह अभिमान का प्रतीक है.यानि हम अजर,अमर ,नित्य आनंदस्वरूप आत्मा होते हुए भी 
स्वयं को देह माने रहते है. विनयपत्रिका में  गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है  'कुणप -अभिमान  सागर 
भयंकर घोर', यानि देह का अभिमान घोर  और भयंकर सागर है.हम सब में जो  थोड़ी थोड़ी साधना करने वाले हैं वे सब जानते हैं कि भरसक प्रयत्न करने के बाबजूद भी हम देहाभिमान के किनारे ही खड़े रह जाते हैं.
जैसे कि सीता जी की  खोज करते हुए सभी वानर समुन्द्र के किनारे खड़े हुए समुन्द्र को लाँघने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं.परन्तु,हनुमानजी  जो  केवल  रामजी के ही  शरणागत हैं,जपयज्ञ और प्राणायाम स्वरुप हैं,इस देहाभिमान रुपी समुन्द्र को राम काज करने हेतु  लाँघने में समर्थ होते हैं.सीता की खोज  यानि परमात्मा को प्राप्त करने की परम चाहत की खोज ,.जो अहंकार रुपी रावण की नगरी में कैद हुई है, ही 'राम काज' है.शरणागति और रामकाज की बात  सुन्दरकाण्ड में हनुमान जी के मुख से  'बार बार रघुबीर संभारी','राम काज किन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम' आदि  वचनों द्वारा सुन्दर प्रकार से वर्णित हुई  है.

जब हनुमान जी लंका दहन कर राम जी के पास आये तो राम जी ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा 'प्रति उपकाकरौं का तोरा, सन्मुख होइ  न सकत मन मोरा' यानि हनुमान जी, मैं आपका कोई प्रति उपकार करने लायक  नहीं हूँ ,यहाँ तक कि मेरा मन भी तुम्हारी ओर नहीं देख पा रहा है,तुम्हारा सामना नहीं कर पा रहा है.
यह  निरभिमानी के लिए अति कठिन परीक्षा है.परन्तु,राम जी के इन वचनों को सुनकर भी निरभिमानी हनुमान प्रेमाकुल हो उनके चरणों में  पड़कर त्राहि त्राहि करने लगे.'चरण परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत', मैं आपकी शरण में हूँ,मुझे बहुत जन्म हो गए हैं गिरते पड़ते,ऐसी बातें कहकर मुझे  अपनी माया में न उलझाईये,मुझे बचा लीजिए,बचा लीजिए. अपने किये हुए काज का किंचितमात्र भी अभिमान नहीं है हनुमान जी में. हनुमान जी की शरणागति सम्पूर्ण और अनुपम  शरणागति है.

जब सीता जी ने 'अजर अमर गुननिधि सुत होहू, करहूँ बहुत रघुनायक छोहू' का आशीर्वाद हनुमान जी को दिया तो  भी वे राम जी के निर्भर प्रेम में मगन हो गए. '    'करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना,निर्भर प्रेम मगन हनुमाना'. इसके बाद ही शरीर धर्म के पालन हेतु उन्होंने सीता जी से आज्ञा माँगी 'सुनहु मातु मोहि अतिशय भूखा,लागि देख सुन्दर फल रूखा'.राम काज के लिए उन्होंने मान अपमान की भी कोई परवाह नहीं की.मेघनाथ के ब्रह्मास्त्र से जानबूझ कर बंधकर,राक्षसों की लात घूंसे खाते हुए घसीट कर ले जाते  हुए भी   रावण की सभा में वे गए,रावण को समझाने की कोशिश की ,वह नहीं माना तो लंका दहन किया.'कौतुक कहँ आये पुरबासी,मारहिं चरन करहिं बहु हांसी,बाजहिं ढोल देहीं सब तारी ,नगर फेरि पुनि पूंछ प्रजारी'.हनुमान जी की शरणागति श्रीमद्भगवद्गीता के उपरोक्त  श्लोक को पूर्णतया चरितार्थ करती है.सभी धर्मो का पालन करते हुए भी उनका आश्रय केवल राम जी के शरणागत रहना ही है.

विभीषण जी ऐसे विवेक का प्रतीक हैं जो 'अहंकारी' रावण का छोटा भाई बन उसकी लंका नगरी में रह रहा है. हैं.उनकी शरणागति हनुमान जी की शरणागति से निचले स्तर (lower level)की है.  जो  शुरू में राम जी की  भक्ति   लंका का राज्य प्राप्त करने हेतु  कर रहे थे और अधर्मी रावण की लंका नगरी भ्रात धर्म,देश धर्म आदि  के कारण  छोड़ नहीं पा रहे थे..जैसे कि कोई  व्यक्ति जीवन में भगवान की भक्ति से केवल भौतिक उपलब्धियों को प्राप्त कर  अधर्म पर आधारित सांसारिक धर्मों का ही निर्वाह  करना चाहता  है.परन्तु,हनुमान जी के दर्शन,सत्संग और मार्ग दर्शन से विभीषण की  शरणागति भी अंततः उच्च स्तर (high level) की हो गयी. जब उन्होंने भ्रात धर्म आदि  के मोह से मुक्त हो लंका का त्याग किया और राम जी का साक्षात्कार किया.उन्होंने राम जी के समक्ष स्वीकार  किया भी 'उर कछु प्रथम बासना रही,प्रभु पद प्रीति सरित सो बही'.विभीषण की शरणागति पहले  वासना सहित थी ,जो हनुमान जी की कृपा से वासना रहित हो गयी. यदि  हम  विभीषण जैसी स्थिति में हैं और ईश्वरभक्ति केवल भौतिक सुख सम्पदा पाने के लिए, अधर्म  का और रिश्ते नातों  का गलत प्रकार से पोषण   करने के लिए  कर रहें हैं, तो हनूमंत सत्संग की हमें भी  परम आवश्यकता है.

समुन्द्र वाली शरणागति मजबूरी की डंडे वाली शरणागति है.'बिनय न मानत जलधि  जड ,गए तीनि दिन बीति ,बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति'. जो परिस्थिति को नहीं समझता,पाप -पुण्य,भला बुरा नहीं समझता,धर्मों की मर्यादा के बहानों में बंधा रह कर ही  'राम काज' में निमित्त भी नहीं बनना चाहता,उसे जब ठोकरें लगें और डर कर वह प्रभु की शरण में आये तो ऐसी शरणागति निम्नतम स्तर (lowest level) की शरणागति है.यदि जीवन में ऐसी शरणागति भी  हो सके तो इसे  प्रभु की  कृपा ही समझनी चाहिए.

अंत में आप सभी सुधि जनों को मैं अपनी पोस्ट 'वंदे वाणी विनयाकौ' की पोड कास्ट जो कि अर्चना चाओ जी ने अपनी सुमुधुर वाणी में बनाई है को सुनवाना चाहूँगा.सुनने के लिए निम्न पर  क्लिक कीजियेगा

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इस पोस्ट को प्रकाशित करने में हुई देरी के लिए क्षमा चाहता हूँ.
आप सभी को अक्षय तृतीया, श्री परशुराम जयंती की हार्दिक शुभकामनाएँ.




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Thursday, February 16, 2012

मेरी बात - ब्लॉग्गिंग की प्रथम वर्षगाँठ

                             यज्ञ दान तप: कर्म  न त्याज्यं कार्यमेव तत्                           
                             यज्ञो दानं  तपश्चैव  पावनानि   मनीषिणाम्

यज्ञ,दान  और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं हैं,बल्कि वह तो अवश्य कर्तव्य हैं.क्यूंकि यज्ञ,दान और तप - ये तीनों ही कर्म बुद्धिमान पुरुषों को पवित्र करनेवाले हैं.

उपरोक्त श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १८ का पांचवां श्लोक है.जिसमें  भगवान श्रीकृष्ण ने अपना निश्चय किया हुआ उत्तम मत  प्रकट किया है कि 'यज्ञ ,दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करते हुए अवश्य ही करना चाहिये'. इस श्लोक पर यदि चिंतन किया जाए तो हम पायेंगें कि यह हमारे सम्पूर्ण जीवन के लिए मूल मन्त्र   है.

'तप' का अर्थ उन बातों को  सीखते (Learn) रहना है  जो हमें जीवन में स्थाई (permanent)चेतन आनंद यानि ईश्वर  प्राप्ति की ओर अग्रसर करती रहें.तप करने में शरीर,मन ,बुद्धि,वाणी,कर्म सभी को सदा साधते रहना पड़ता  है.इसलिए जीवन के हर स्तर पर  सीखने के लिए तत्पर रहने की आवश्यकता है.अस्थाई (temporary) आनंद के लिए किया गया तप निरर्थक और क्लेश मात्र ही है.ब्लॉग्गिंग में सार्थक पोस्ट  और टिपण्णी लिखने  का प्रयास एक सुन्दर तप ही  है.

'यज्ञ' का अर्थ सीखे हुए को पूर्ण मनोयोग से  आनंदपूर्वक करते रहना ( execute smoothly)  है.यदि हम ऐसा नहीं करेंगें तो  हमने जो सीखा उसे  शीघ्र भुला देंगें.यज्ञ करते रहने से आनंद की वृष्टि होती है  जिससे सर्वत्र पोषण होता  है.इसलिए यज्ञ की भी हमेशा ही आवश्यकता है.श्रीमद्भगवद्गीता में अनेक प्रकार के यज्ञ बतलाये गए हैं .यथा 'द्रव्य यज्ञ, स्वाध्याय यज्ञ,जपयज्ञ ,ज्ञान यज्ञ आदि आदि.जिनमें 'ज्ञान यज्ञ' सर्वश्रेष्ठ यज्ञ और जप यज्ञ को भगवान ने अपना स्वरुप ही बतलाया  है.ब्लॉग जगत में 'ज्ञान यज्ञ' किया जाना  अभीष्ठ और श्रेष्ठ प्रयास  है.

'तप' और 'यज्ञ' करते रहने से ज्ञान और अनुभव अर्जित होता जाता है.यदि अर्जित  ज्ञान और अनुभव का वितरण (distribution)/दान न हो तो यह निरर्थक  रह सकता है .इसलिए  ज्ञान और अनुभव को सुयोग्य पात्र
को 'दान' करने की भी परम आवश्यकता है.यह सुयोग्य पात्र एक  'learner' या तपस्वी होता  है. अपने अपने ज्ञान और अनुभव का ब्लॉग जगत में अपनी पोस्टों और टिप्पणियों के माध्यम से वितरण किया जाए  तो
यह  जिज्ञासु जन/learners  के लिए सुन्दर दान है.

मैंने अपने ब्लॉग का नाम 'मनसा वाचा कर्मणा' इसी उद्देश्य से रक्खा है  कि  मन से,वाणी से और कर्म
से मैं आप सभी सुधिजनों के साथ सदा सीखने के लिए चेष्टारत रह सकूँ.माह फरवरी २०११ में मैंने अपनी
पहली पोस्ट 'ब्लॉग जगत में मेरा पदार्पण' लिखी थी.दूसरी पोस्ट 'जीवन की सफलता अपराध बोध से मुक्ति',तीसरी 'मन ही मुक्ति का द्वार है' ,चौथी 'मो को कहाँ ढूंढता रे बन्दे'.
फिर मार्च २०११ में 'मुद मंगलमय संत समाजू',' ऐसी वाणी बोलिए' और 'बिनु सत्संग बिबेक न होई' लिखीं.
अप्रैल में 'वंदे वाणी विनायकौ','रामजन्म -आध्यात्मिक चिंतन-१'
'रामजन्म-आध्यात्मिक चिंतन-२'.  
मई  २०११ में  'रामजन्म-आध्यात्मिक चिंतन-३' व 'रामजन्म- आध्यात्मिक चिंतन-४', 
जून,जुलाई, अगस्त,सितम्बर और अक्टूबर २०११ में 'सीता जन्म -आध्यात्मिक चिंतन-१' 
'सीता जन्म -आध्यात्मिक चिंतन-२','सीता जन्म-आध्यात्मिक चिंतन-३',
'सीता जन्म -आध्यात्मिक चिंतन-४'  'सीता जन्म आध्यात्मिक चिंतन-५' 
माह नवम्बर और दिसम्बर २०११ में 'हनुमान लीला -भाग १' और 'हनुमान लीला -भाग २' लिखीं.
और माह जनवरी २०१२ में ब्लॉग्गिंग में एक वर्ष पूर्ण करने से पूर्व  'हनुमान लीला भाग-३' लिखी.
इस प्रकार कुल २० पोस्ट ही मेरे द्वारा लिखीं गयीं जिन पर आप सुधिजनों ने अपने सुवचनों का
अनुपम 'दान' और भरपूर सहयोग मुझे दिया  है.यह मेरे लिए अत्यंत हर्ष और उत्साह की बात है
कि मैं आपका कृपा पात्र बन सका.इसके लिए मैं आप सभी का हृदय से आभारी हूँ और सदा ही रहूँगा.
मैं यह भी आग्रह करूँगा कि जिन सुधिजनों की उपरोक्त पोस्ट में से कोई पोस्ट पढ़ने से रह गयीं हों तो
वे एक बार  उस पोस्ट को पढकर अपने सुविचार प्रकट अवश्य करें.

मैं सदा प्रयासरत रहना चाहूँगा कि आप सभी के साथ सत्संग के माध्यम से एक दुसरे से सीखना जारी रहे
और 'तप', यज्ञ' और 'दान' के माध्यम से हम अपने अपने जीवन को सुखमय,आनन्दित व पावनमय बनाने
में भगवान कृष्ण के उपरोक्त उत्तम मत को अपने हृदय में धारण कर सकें. आप अपना अमूल्य समय
निकाल कर मेरे ब्लॉग पर आते हैं,और सुन्दर टिपण्णी से  मेरे प्रयास को यज्ञ का स्वरुप प्रदान करते हैं
इससे आनंद की वृष्टि होती है.मैं भी आपके ब्लोग्स पर जाकर टिपण्णी करने का यथा संभव प्रयास
करता हूँ.सभी सुधिजनों की सभी पोस्ट पर नहीं जा पाता हूँ,इसका मुझे खेद है. डेश बोर्ड पर भी आपकी
पोस्ट बहुत बार चूक जातीं हैं.सभी से  अनुरोध है कि आप अपनी पोस्ट की सुचना मेरे ब्लॉग पर अपनी
टिपण्णी के साथ भी दें तो आसानी रहेगी.मैं भी अपनी पोस्ट की सूचना आपके ब्लॉग पर अक्सर दे देता हूँ.
यदि सूचना के बाबजूद  नियमित पाठक नहीं आतें हैं तो मुझे चिंता और निराशा होती है.चिंता उनके
कुशल मंगल के विषय में जानने की व निराशा उनके अनमने या नाराज होने की.यदि मेरी  किसी भी बात से
आपको नाराजगी हुई हो तो इसके लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूँ.अपनी नाराजगी यदि आप मुझे बताएं  तो मैं
उसको यथा संभव दूर करने का प्रयत्न करूँगा.परन्तु,आपका अकारण नाराज होना और अनुपस्थित रहना
मुझे व्यथित करता है.मैं आप सभी को यह भी बतलाना चाहूँगा कि इंटरनेट और कंप्यूटर की मुझे
अति अल्प  जानकारी  है.इस सम्बन्ध में मुझे समय समय पर 'खुशदीप भाई' 'केवल राम जी','शिल्पा बहिन' और 'वंदना जी का सहयोग मिलता रहा है.इसके लिए मैं उनका हृदय से आभारी हूँ.

ब्लॉग जगत में हम सब का सकारात्मक मिलन परम सौभाग्य की बात है. पोस्ट,टिपण्णी व प्रति टिपण्णी
द्वारा ही सुन्दर 'वाद' की सृष्टि होती है ,जो 'परमात्मा' अर्थात 'सत्-चित -आनंद' की एक उत्तम विभूति ही है.

ब्लॉग्गिंग की प्रथम वर्ष गाँठ पर 'मेरी बात' पढ़ने के लिए आप सभी का पुनः बहुत बहुत हार्दिक आभार
और धन्यवाद.

आज ही मेरे बेटे पारस का  पच्चीसवां  जन्म दिवस भी है.
                              
                        जय जय जय हनुमान गुसाईं, कृपा करो गुरु देव की नाईं

अगली पोस्ट भी मैं 'हनुमान लीला' पर ही जारी रखना चाहूँगा.

आप सभी की कृपा और आशीर्वाद का सैदेव आकांक्षी
राकेश कुमार.



Friday, January 20, 2012

हनुमान लीला - भाग ३

                           नहिं कलि करम न भगति बिबेकू, राम   नाम    अवलंबन    एकू
                           कालनेमि   कलि   कपट  निधानू, नाम  सुमति समरथ हनुमानू

'कलियुग में न कर्म है, न भक्ति है और न ज्ञान ही है.केवल रामनाम  ही एक आधार है.कपट की खान
कलियुग रुपी कालनेमि को मारने के लिए 'रामनाम' ही बुद्धिमान और समर्थ श्रीहनुमानजी हैं.'

मेरी  पोस्ट   'रामजन्म -आध्यात्मिक चिंतन-२'   में  श्रीरामचरितमानस  में  वर्णित  कलियुग  का
निम्न  आध्यात्मिक निरूपण  किया गया था.

                      तामस बहुत रजोगुण थोरा ,   कलि प्रभाव विरोध चहुँ ओरा

हमारे हृदय में जब तमोगुण अर्थात आलस्य, अज्ञान, प्रमाद,  हिंसा आदि  बहुत बढ़ जाये ,रजोगुण अर्थात 
क्रियाशीलता कम हो जाये,और सतोगुण यानि ज्ञान व विवेक का तो मानो लोप ही हो जाये, चहुँ  ओर विरोधी 
वृत्तियों का ही हृदय में वास हो, सब तरफ अप्रसन्नता और विरोध हो, तो कह सकते हैं हम उस समय 
'घोर 'कलियुग' में ही जी रहे है.

कलियुग  मन की निम्नतम स्थिति या अधोगति की वह  अवस्था है जिस  में सकारात्मक सोचने और
निर्णय करने की शक्ति यानि विवेक का सर्वथा अभाव होने से कोई सद्कर्म नही हो पाता. न ही मन
ईश्वर से जुड़ने अर्थात भक्ति का आश्रय ले पाता है. मन में विरोधी वृत्तियों का वास 'कालनेमि' राक्षस
के समान सदा ही धोखा देने और ठगने में लगा रहता है. 'कालनेमि'  हमारे अहंकार रुपी रावण का ही
एक सहयोगी है. जो ठग विद्या में अति निपुण है.यह  'राम नाम' का झूंठा प्रदर्शन और ढोंग  करके
हनुमान जी को भी ठगना चाहता है.परन्तु, हनुमान जी सदा सजग है,बुद्धिमान है.इसीलिए वे कालनेमि
राक्षस के कपट को समझ लेते हैं और अंतत:उसका वध कर डालते है.  सही प्रकार से नित्य सजग  'नाम
स्मरण' वीर हनुमान की तरह ही हमारी कपट और ढोंग से रक्षा करता रहता है.

मेरी पिछली पोस्ट 'हनुमान लीला - भाग २' में हमने जाना कि 'हनुमान' शब्द ने किस प्रकार से अपने अंदर
'ऊँ' कार रुपी परमात्मा के नाम  को धारण कर रक्खा है. यदि हम हृदय  में 'आकार' को धारण करते हैं,तो
अहंकार की उत्पत्ति होती है.  आकार शरीर,मन ,बुद्धि आदि किसी भी  स्तर  पर दिया जा सकता है.यदि
शरीर के आधार पर मैं स्वयं को मोटा,पतला,गोरा,शक्तिशाली,सुन्दर आदि  होने का मान दूँ तो तदनुसार ही
मेरे  अहंकार का उदभव होता है व  मैं  खुद को वैसा ही समझने लगता हूँ .इसी प्रकार मन के आधार पर सुखी,
दुखी, बुद्धि के आधार पर बुद्धिमान, तार्किक आदि होने का अहंकार होता है. पर 'हनुमान' तो किसी भी
आकार को धारण न कर केवल 'ऊँ' कार को ही धारण करते हैं.जिसका अर्थ है वे हमेशा 'ऊं ' को ध्याते हैं,
'ऊं' का भजन करते हैं,'ऊं' का ही मनन करते हैं.हनुमान इतने निरभिमानी हैं कि वे परमात्मा के ध्यान
में स्वयं को भी भूल जाते हैं.इसीलिए जाम्बवान (रीछ पति) को उनका आह्वाहन करते हुए कहना पड़ता है
             
                      कहइ  रीछपति सुनु  हनुमाना,का चुप  साधी रहेउ  बलवाना 
                      पवन तनय बल पवन समाना,बुद्धि बिबेक बिग्यान निधाना
          

'ऊँ' को ध्याने से 'ऊं' का जप करने से प्राणायाम की  स्थिति होती है , प्राण की उर्ध्व गति होती है.सांसारिक
और विषयों के चिंतन से प्राण की अधोगति होती है.क्यूंकि तब 'साँस' विषमता को प्राप्त  होता रहता है.
परन्तु , जब 'ऊँ' का उच्चारण किया जाता है तो जितनी देर  या लम्बा हम 'ओ' बोलते हैं , शरीर से कार्बन
डाई ऑक्साइड (CO2) उतनी ही अधिक बाहर निकलती है. जैसे ही 'म' कहकर 'ओम्' का उच्चारण पूर्ण कर
लिया जाता है , इसके बाद लंबी   साँस के द्वारा ऑक्सीजन (O2) शरीर में  गहराई  से प्रवेश करती है.इस
पूरी प्रक्रिया में  जहाँ शरीर स्वस्थ होता है,मन और बुद्धि भी शांत होते जाते हैं. अधिकतर मन्त्रों  में  'ऊँ' का
सर्वप्रथम होने का यही कारण है कि 'ऊँ' परमात्मा का आदि नाम है तथा प्राण को हमेशा 'उर्ध्व' गति प्रदान
करता है.इसीलिए तो हनुमान 'ऊँ' को सैदेव हृदय में धारण किये हुए हैं.कहते हैं जब उनसे पूछा गया कि
'सीता राम' कहाँ हैं तो उन्होंने अपना सीना फाड़ कर सभी को 'सीता राम' के दर्शन करा दिए.'सीता' यानि
परमात्मा की परा भक्ति , राम यानि 'सत्-चित-आनन्द' परमात्मा सदा ही उनके हृदय में विराजमान हैं.

हनुमान की भगवान के प्रति अटूट  शरणागति सभी के लिए अनुकरणीय है.शरणागति का सरलतम
अर्थ है 'आश्रय'की अनुभूति.दुनिया का ऐसा कोई जीव  नही है जिसको आश्रय या सहारे की आवश्यकता
न हो.परन्तु आश्रय किसका ?यह बात अलग हो सकती है.भविष्य की अनिश्चितता के कारण प्राय:  सभी
के मन मे संदेह,भय,असुरक्षा घर किये रहते हैं.यदि सही आश्रय मिल जाता है तो व्यक्ति निश्चिन्त सा हो
जाता है.सांसारिक साधन कुछ हद तक ही सहारा देते हैं,अत: वे सापेक्ष (relative)  हैं.जब तक समुचित
सहारे का अनुभव नही होता,मन अशांत होता रहता है.ईश्वर का आश्रय होने से चित्त में आनन्द का
आविर्भाव होता है,चित्त में निश्चिन्तता आती है. हनुमान  हमेशा निश्चिन्त हैं ,क्यूंकि उनका आश्रय
'राम' हैं, जो निरपेक्ष(absolute) है,स्थाई  और चेतन आनन्द  है,शरणागत वत्सल है.

समस्त अनिश्चिंतता,भय संदेह ,असुरक्षा का कारण 'मोह' अर्थात अज्ञान है,अज्ञान के साथ अभिमान
अर्थात यह मानना कि मुझे किसी आश्रय की आवश्यकता नही है अत्यंत शूलप्रद और कष्टदायी होता है.
रावण को लंका दहन से पूर्व समझाते हुए इसलिये हनुमान जी कहते हैं.
                                       
                                        मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान 
                                        भजहु  राम  रघुनायक  कृपा  सिंधु भगवान 

शस्त्र और शास्त्र दोनों के धनी श्री गुरू गोविन्द सिंह जी भी सुस्पष्ट शब्दों में कहते हैं:-
                                           
                                                सबै  मंत्रहीनं   सबै    अंत कालं 
                                                भजो एक चित्तं  सुकालं कृपालं 
                            'जब अंत समय आता है तो सभी मंत्र निष्फल हो जाते हैं,
                             इसीलिए मन लगाकर  कृपा सिंधु प्रभु का भजन  करो.'

यदि हृदय में मोह और अभिमान छोड़ प्रभु को धारण कर हनुमान जी की तरह प्रभु का भजन किया
जाये तो कलि युग रुपी कपट की खान कालनेमि हमारा  कुछ भी बिगाड नही सकता है.

आप सभी सुधिजनों का मैं दिल से आभार व्यक्त करता हूँ कि आपने मेरी हनुमान लीला की पिछली
दोनों पोस्टों ('हनुमान लीला-भाग १' तथा 'हनुमान लीला - भाग २') को मेरी लोकप्रिय (popular) पोस्टों
में लाकर  प्रथम व द्वितीय स्थान पर पहुँचा दिया है.आशा है आप मेरी इस पोस्ट पर भी  अपने प्यार,
सहयोग और सुवचनों  के द्वारा   मेरा उत्साहवर्धन अवश्य करेंगें.यदि आप सभी की अनुमति और परामर्श
हो तो अगली कड़ी भी मैं हनुमान लीला पर ही आधारित रखना चाहूँगा.

आप सभी को नववर्ष की शुभकामनाएँ,मकर सक्रांति की शुभकामनाएँ और आनेवाले गणतंत्र दिवस की
बहुत बहुत शुभकामनाएँ.