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Sunday, March 20, 2011

बिनु सत्संग बिबेक न होई

शुभ भावों और विचारों का ऐसा बहायें रंग, मन भीगे होली में और खूब जमे सत्संग
तन की होली तो आज सभी खेल रहें है,चलिए थोडा मन की होली भी खेल ली जाये.

मन की होली के लिए प्रथम 'शुभ' के प्रतीक गणेशजी का ध्यान करते हुए मन -मष्तिक में
सुंदर भावों और विचारों का आवाहन करते हैं और फिर सर्जन के प्रतीक ब्रह्मा जी का
पूजन करते हैं ताकि एक अच्छी सार्थक पोस्ट का सर्जन हो . वाणी की प्रतीक सरस्वती जी
का वंदन  करते हुए आईये रंगों की  सुंदर बौछार शुरू करते है.  लेकिन साहब रंग भी तो 'श्रेय'
मार्का पक्के  ही होने चाहिए जो  सत्यम शिवम सुंदरम के भावों को पोषित करते हुए जीवन
 को आनंदमय बना सदा कल्याण करें .   'प्रेय'  मार्का  नकली और सस्ते रंगों से तो बचना
 पड़ेगा  जो मिलावटी होते  हैं  और अन्ततः नुकसान ही करते हैं.
 लेकिन 'श्रेय' मार्का रंग आसानी से बाजार में उपलब्ध नहीं है. ऐसे रंगों की पहचान के लिए
 विवेक की अति आवश्यकता है. अब विवेक कहाँ से लाएं?   चिंता की कोई बात नहीं है ,यह
 भी मिल ही जायेगा, बस थोडा सत्संग जमा लिया जाये, क्योंकि रामचरितमानस में
तुलसीदास जी  कह गए हैं:-

बिनु सत्संग बिबेक न होई , राम कृपा बिनु सुलभ न सोई

यूँ तो सत्संग और राम कृपा से सभी परिचित होंगे ,फिर भी जब रंग बहाने ही हैं तो यहाँ सत्संग
 और राम कृपा को थोडा और समझने का प्रयास करते हैं. सत्संग का मतलब सच्चा संग.
साधारणतया सत्संग का मतलब हम कुछ कीर्तन,  भजन, गाना या प्रवचन आदि सुनना ही समझते
हैं. लेकिन संग तो हमारा बहुत सी चीजों से हो सकता है. जैसे भोजन करते समय भोजन का.
अच्छा पोष्टिक सतोगुणी भोजन ग्रहण करें तो खाने का सत्संग होता है .इसी प्रकार सही समय
 पर सही काम करें तो समय का सत्संग  होता है.  सुबह जल्दी उठकर शौच आदि से निवर्त हो
 व्यायाम, स्नान ध्यान पूजन करें तो सुबह के समय का अच्छा सत्संग हो जाता है..अच्छी
ज्ञानवर्धक पुस्तकें पढ़ें तो  पुस्तकों का सत्संग हो जायेगा. अच्छी पोस्टों का पढ़ना ,
उनपर सार्थक टिप्पणिओं और प्रति-टिप्पणिओं को पढ़ना और करना भी  ब्लॉग
जगत का सत्संग है.  अच्छे सकारात्मक  सद्  विचारों का संग भी सुन्दर सत्संग है.
 सद् गुणी ज्ञानवान व्यक्तिओं का संग भी सत्संग ही कहलाता है  कर्णप्रिय शांति ,
आनन्द  और सद्  भावों का संचार करने वाले संगीत का सत्संग . आदि आदि.
मतलब ये कि जब तक हम सत्संग नहीं करते हैं तब तक हमारा बुरी बातों से निसंग नहीं हो पाता.
यदि हम तमो रजो गुणी खाना ही खाते रहेंगे  तो सतो गुणी खाने के आनन्द का अनुभव कैसे कर
सकते हैं.सत्संग से   आनन्द का अनुभव जैसे जैसे बढ़ता जाता है,  अनावश्यक बेकार कि बातों से
छुटकारा मिलता जाता है. सत्संग से कितनें लोगों को बुरी आदतों जैसे स्मोकिंग,शराब,
गुस्सा करना आदि से छुटकारा पाते हुए   मैंने देखा है . जैसे जैसे बुरी बातों से निसंग
 होता जाता है ,मन में मोह यानि अज्ञान का विनाश हो ज्ञान का प्रकाश होता जाता है,
ज्ञान के उदय होने से ही विवेक का उदय होता है .विवेक के द्वारा ही निश्चल तत्व
समझने में  आने लगता है कि जीवन में क्या करना है और क्या नहीं.  ऐसा समझ आते
 ही तो फिर  जीवन  निश्चल तत्व  की  प्राप्ति की  ओर अग्रसर हो जाता है . यदि ऐसा
जीवन में घटित होता है और सभी  भ्रमों से छुटकारा मिल जाये तो यही जीवन मुक्ति है.
आदि गुरु शंकराचार्य जी ने अपने मोह-मुद्गर में लिखा है

                   सत्संग गत्वे निसंगत्वं, निसंगत्वे  निर्मोहत्वम
               निर्मोहत्वे निश्चल तत्वम,निश्चल तत्वे जीवनमुक्ति
            भज गोविन्दम भज गोविन्दम ,गोविन्दम भज मूड मते


तो फिर मुक्ति के लिए उलझन और भटकन कैसी?  मुक्ति तो आप-हम सब का इन्तजार कर रही
है, बस जरा सत्संग जमा लीजिए . लेकिन थोडा रुकिए, राम कृपा को भी तो समझ लेते हैं.राम
कृपा हमारे पिछले और वर्तमान कर्मों का ही तो समग्र रूप है . भूतकाल में यदि हमने अच्छे विचारों,
भावों और कर्मों का संग किया हो तो सत्संग हमे कभी न कभी  दैव योग से
 मिल ही  जाता है ,और यदि वर्तमान में  ही अच्छे विचारों, भावों और  कर्मों का संग
 करें तो तत्काल  राम कृपा हो  जाती है और सत्संग सहज रूप से सदा उपलब्ध रहता है.
 पिछले का पछताना क्या,अब तो वर्तमान की ही सोचें . कहा भी  गया है

बीती ताहि बिसार दे आगे की सुध लेई

आईये  'श्रेय'  रंगों की बौछार से सत्संग जमा ही लेते हैं.
आपकी  सार्थक और रंगारंग टिप्पणिओं का इन्तजार है.
देर न लगाइये  बस आ जाईये ,खुशी  के रंगों  से नहला  जाईये .


आप सभी को होली के पावन रंगमय पर्व पर बहुत बहुत मंगल कामनायें .
   

जाते जाते हमारी पत्नी साहिबा की ओर से कुछ रसमयी तुकबंदी

कोयल की कूक सुन
मन में उठी उमंग
रोम रोम बहने लगी
मादक,मृदुल तरंग
उपवन में चलने लगी
मीठी ,मधुर बयार
आते ही मधुमास ने
दिया है अपना प्यार
फागुन में जब मौज से
पूछा उसका हाल
चहुँ और उड़ने लगा
केसरिया गुलाल
डाल डाल लहरा  गया
सुंदर पुष्प गुलाब
साँसों में राधा बसी
धडकन में नन्द लाल
पिचकारी का 'बैट' है
'गेंद ' बने हैं गाल
क्रिकेट की होली खिले
खेलें मेरे लाल
प्याज भी नाराज है
रूठा  हम से तेल
महंगाई हँस कर कहे
मुझसे होली खेल
जनता से नेता खेल  रहे हैं
भ्रष्टाचार की होली,
पर आओ हम सब मिलकर खेलें
प्यार,विश्वास,स्नेह की होली








Sunday, March 6, 2011

ऐसी वाणी बोलिए

सुर और असुर समाज में हमेशा से ही होते आयें हैं.  सुर वे जन हैं जो अपने विचारों ,भावों
और कर्मो के माध्यम से खुद अपने में  व समाज में  सुर ,संगीत और हार्मोनी लाकर
आनन्द और शांति की स्थापना करने की कोशिश में लगे रहते हैं.  जबकि असुर  वे  हैं
जो इसके विपरीत, सुर और संगीत के बजाय अपने विचारों ,भावों और कर्मो के द्वारा
अप्रिय शोर  उत्पन्न करते रहते हैं और समाज में अशांति फैलाने में कोई कोर कसर
नहीं छोड़ते.   इसका मुख्य कारण तो यह ही समझ में आता है कि सुर जहाँ ज्ञान का
अनुसरण कर जीवन में 'श्रेय मार्ग' को   अपनाना अपना ध्येय  बनाते हैं वहीँ असुर अज्ञान
के कारण 'प्रेय मार्ग'  पर ही अग्रसर रहना पसंद करते हैं और जीवन के अमूल्य वरदान को भी 
 निष्फल कर देते हैं. 
'प्रेय मार्ग'  तब तक  जरूर अच्छा लगेगा जब तक यह हमें भटकन ,उलझन ,टूटन  व अनबन
आदि नहीं प्रदान कर देता.  जब मन विषाद से अत्यंत ग्रस्त हो जाता है तभी हम कुछ
सोचने  और समझने को मजबूर होते हैं. यदि हमारा सौभाग्य हो तो ऐसे में ही संत समाज
और सदग्रंथ हमे प्रेरणा प्रदान कर उचित मार्गदर्शन करते हैं.
वास्तव में तो चिर स्थाई चेतन आनन्द की खोज में हम सभी लगे हैं. जिसे शास्त्रों में
ईश्वर के नाम से पुकारा गया है. ईश्वर के बारें में हमारे शास्त्र बहुत स्पष्ट हैं.
यह कोई ऐसा .काल्पनिक  विचार नहीं कि जिसको पाया न जा सके. इसके लिए 
आईये  भगवद गीता अध्याय १० श्लोक ३२ (विभूति योग) में  ईश्वर के बारे में दिए गए
निम्न शब्दों पर विचार करते हैं .
                                                  "वाद:   प्रवदतामहम"
अर्थात परस्पर विवाद करनेवालों का तत्व निर्णय के लिए किये जाने वाला वाद हूँ मै .

विभूति  का अर्थ यहाँ ब्राह्य जगत में ईश्वर (यानि परमानन्द)  के दर्शन और अनुभव से है
और 'योग' माने जब ऐसे  दर्शन  और अनुभव से हम मन और बुद्धि के  माध्यम  से स्वयं  जुड
जाएँ .वाद के द्वारा भी चिर स्थाई चेतन आनन्द से जुड़ा जा सकता है ऐसा आशय है गीता 
के उपरोक्त श्लोक का .जब हम परस्पर विवाद अथवा तर्क करतें हैं तो यह मुख्यतः निम्न 
 तीन प्रकार से किया जा सकता है 

(१ ) जल्पना - जहाँ तर्क करनेवालों में एक पक्ष केवल अपने ही तर्क प्रस्तुत करने में  लगा
                        रहता है और दूसरे पक्ष को बिलकुल सुनने की कोशिश ही नहीं करता .

(२ )वितण्डा -  जहाँ तर्क करने वालों में एक पक्ष दूसरे पक्ष की बातों को जानबूझ कर काटने
                        में लगा रहता है भले ही दूसरे पक्ष की बातें  बिलकुल ठीक भी हों .

(३ ) वाद  -       जब तर्क करने वाले इस प्रकार से तर्क करते हैं कि एक पक्ष अपनी बात
                       कहता है दूसरा पक्ष उसे सावधानीपूर्वक सुनता है और जब प्रथम पक्ष अपनी
                       बातें कह लेता है तो दूसरे पक्ष की बातें प्रथम पक्ष सावधानीपूर्वक सुनता है   
                       और दोनों पक्षों का उद्देश्य तर्कों के माध्यम से सकारात्मक तत्व को पाना
                       अर्थात 'तत्व-निर्णय' करना होता है. जो दोनों  पक्षों को ही नहीं अपितु सभी
                       को आनन्द प्रदान करनेवाला होता है .

  अब आप ही हमें  बताएं कि जीवन में  आनन्द की प्राप्ति हेतु   हम तर्क करते हुए 
 'जल्पना'  व 'वितण्डा' को अपनाएं या 'वाद'  को.
  
 ब्लॉग जगत में भी हम अपनी पोस्ट के माध्यम से अपने भाव और विचार प्रस्तुत
 करते हैं और दूसरों की पोस्ट पर  अपनी टिपण्णी देकर अपने अपने भाव और विचार
 प्रकट करते हैं. क्या इन सब का उदेश्य भी आनन्द की ही प्राप्ति नहीं है ?
 क्या ब्लॉग जगत में भी वाद की आवश्यकता नहीं है?

यदि हाँ और आप भी  गीता की वाणी से सहमत हों , तो चलिए हम सब 'वाद' को  
अपनाकर परमानन्द की प्राप्ति की ओर अग्रसर हों और अपने जीवन को मधुर मधुर
वाणी के द्वारा सफल बनाते जाएँ . क्योंकि तर्क वाणी  का ही तो परिणाम हैं जिससे
सुर और संगीत भी पैदा हो सकता है .

"ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय , औरन को शीतल करे आपहु शीतल होय  " 

सभी सुधिजनों से विन्रम निवेदन है कि वे मेरी पिछली पोस्ट्स  का अवलोकन कर उन
पर भी अपने बहुमूल्य विचारों से अवगत कराएँ.  'श्रेय मार्ग ' और 'प्रेय मार्ग' के  बारे में 
 मेरी पोस्ट 'मुद् मंगलमय संत समाजू'  में भी प्रकाश डाला गया है.


Tuesday, March 1, 2011

मुद मंगल मय संत समाजू

कहते हैं प्रयागराज तीर्थ  में तीन अति पवित्र नदियों का संगम होता है. गंगा ,जमुना और सरस्वती.  प्रतीक रूप में  जहाँ  गंगा को भाव और भक्ति की धारा माना गया है तो यमुना को विधि और निषेध    (यह करो और यह न करो) रुपी कर्मों की कहानी , और सरस्वती को तो ब्रह्म ज्ञान की  वह  गुप्त धार मानते हैं  जो  जगत में भी गुप्तरूप से प्रवाहित  होती रहती है.  इसीलिए प्रयागराज को तीर्थराज कहा जाता है . संतों के समाज को भी तीर्थराज की ही उपमा दी गयी है जिससे सदा आनंद  और मंगल का उद्गम होता रहता  है.  गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरित्र मानस में लिखा है

                              मुद मंगलमय संत समाजू , जो जग जंगम तीर्थराजू
       अर्थात संत समाज आनंद और मंगलमय  है  जो कि जगत में तीरथराज के समान ही है,

संत वास्तव में ऐसा व्यक्ति है जिसका अंत सुखद हो. अर्थात जिसने  जीवनभर ऐसे भाव, कर्म और विचारों का  आचरण किया हो जिससे मरने के बाद भी लोग उसे याद रखें और वह खुद भी सदा  अंत:करण में  तृप्त और संतुष्ट रहे.  संतों के समाज में ही  भाव-भक्ति, कर्म रहस्य और ज्ञान की ऐसी ऐसी बातें जानने को मिलती हैं कि लगता है आनंद सागर में ही गोते लगा लिए हों.जिसमे   स्नान कर  मन  निर्मल हो जाता है .
    
ब्लॉग जगत में आये मुझे एक महीना से कुछ कम समय  ही हुआ होगा. परन्तु जो मेरा अनुभव रहा 
वह बहुत ही सुखद  रहा . यूँ तो अच्छा बुरा सभी जगह मिलेगा , पर दैवयोग से मुझे जो दर्शन  हुआ उसे मै शुभ ही मानता हूँ .  यहाँ ज्ञान की बाते जानने को मिली  ,भाव और भक्ति का रस मिला और कर्म रहस्य के बारे में भी बहुत सी जानकारी मिली . मै अभी तक कुल चार  पोस्ट ही लिख पाया हूँ .इन पोस्टों पर जो भी टिप्पणिओं के रूप में वैचारिक सहयोग मुझे ब्लॉग जगत के सुधिजनो का मिला उससे मेरा मनोबल बढ़ा है. मैंने भी समय और सुविधा अनुसार अपने विचार अन्य सुधिजन के ब्लोग्स पर प्रस्तुत किये हैं  और बहुत ही सुंदर विचारों का आदान प्रदान  करने का मुझे मौका मिला. डॉ. दिव्या जी ने मेरी पोस्ट 'मो को कहाँ ढूंढता रे बन्दे' पर अति सुंदर विचार प्रस्तुत करते हुए बताया की हमारे अन्दर दो तरह की आवाजे होती हैं ,एक मन की और दूसरी आत्मा की .आत्मा की आवाज ही हमारा सदा कल्याण  करती है जो एक बार ही होती है

इस सम्बन्ध में  संतजनों और शास्त्र के आधारपर  मुझे जो जानने को मिला वह यह  है  कि जीवन में हम सदा आनंद को ही खोजते रहते हैं .एक प्रकार का आनन्द  तो वह है जो वास्तव में हो  न, पर अज्ञान के कारण  शुरू में   दिखलाई पड़ता हो और जिसका अंत अंततः दुःख ही निकलता हो. इस प्रकार के आनंद के मार्ग  को जीवन में अपनाना   ' प्रेय मार्ग' को अपनाना कहलाता  है . अर्थात जो मन को प्रिय लगे पर जिसका अंत कल्याणकारी नहीं होता. जैसे सिगरट ,शराब आदि पीना, व्यर्थ का वार्तालाप (chating) करना, आदि आदि .

आनंदका दूसरा मार्ग जो आत्मा के 'सत-चित-आनंद'  भाव से पोषित होता है उसे शास्त्रों में ' श्रेय मार्ग ' बतलाया गया है. इस मार्ग का अनुसरण करने से हो सकता है यह शुरू में  कष्ट प्रद  लगे पर अंत में यही मार्ग हमे निर्मल चिर आनंद प्राप्त कराता  है जो सैदेव हमारा कल्याण करता है .ऐसे ही श्रेय  मार्ग के  दर्शन की मांग अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से की थी. जिस कारण 'भगवद गीता' जैसे अनुपम और अलोकिक ज्ञान का प्रसाद जगत को मिल पाया .  अत: आनंद का चिंतन और अनुसरण  करते हुए हमें सदा सजग और ध्यान रख कोशिश करनी  चाहिए कि हम केवल 'श्रेय मार्ग' का ही अनुसरण करें जो हमारा निश्चित रूप से कल्याण करे . 'श्रेय मार्ग' की जानकारी हमें सत पुरुषों व सत शास्त्रों  के संग से  मिलती है .हम भाग्यशाली हैं कि आज के युग में  यह जानकारी  हमें  ब्लॉग जगत के माध्यम से भी  सहज में उपलब्ध हो सकती है बशर्ते हम ईमानदारी से कोशिश करे .यदि ब्लॉग जगत में संत समाज मिल जाए तो समझो साक्षात् तीर्थराज ही की उपलब्धि हो गयी. फिर तो कल्याण ही कल्याण है जीवन में.