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Friday, November 25, 2011

हनुमान लीला - भाग १

                        अतुलितबलधामं     हेमशैलाभदेहं
                                           दनुजवनकृशानुं    ज्ञानिनामग्रगण्यम 
                         सकलगुणनिधानं  वानरणामधीशं
                                           रघुपतिप्रियभक्तं   वातजातं  नमामि  


अतुलित बल के धाम , सोने के पर्वत के समांन  कान्तियुक्त  शरीर वाले ,दैत्यरूपी  वन को आग 
लगा देने वाले (अधम वासनाओं का  भस्म करने वाले), ज्ञानियों में सर्वप्रथम,सम्पूर्ण गुणों के भण्डार 
वानरों के स्वामी ,श्री रघुनाथ जी के प्रिय भक्त  पवनपुत्र श्री हनुमान जी को मैं प्रणाम करता हूँ.


मेरी पोस्ट 'रामजन्म -आध्यात्मिक चिंतन-१' से 'रामजन्म - आध्यात्मिक चिंतन-४''सीता जन्म
-आध्यात्मिक चिंतन १' से 'सीता जन्म -आध्यात्मिक चिंतन -५' तक मैंने 'राम', 'दशरथ','कौसल्या'
'सतयुग, त्रेता ,द्वापर  व कलयुग''उपवास', 'अयोध्या', 'अवधपुरी', 'सरयू', 'सीता' , 'पार्वती', 'शिव',
'अर्थार्थी, जिज्ञासु ,आर्त व ज्ञानी भक्त' , 'जप यज्ञ' आदि  का  चिंतन आध्यात्मिक रूप से  करने की
कोशिश की  है. इस प्रकार के चिंतन से हमें यह लाभ है  कि हम पौराणिक  या ऐतिहासिक वाद  विवादों
से परे हटकर अपना ध्यान केवल  'सार तत्व' पर केंद्रित करने में समर्थ होने लगते हैं. ज्यूँ ज्यूँ  उचित
साधना का अवलंबन कर सार्थक चिंतन मनन से 'सार तत्व' हमारे अंत;करण में घटित होने लगता है
तो हम अखण्ड आनंद की स्थिति की और अग्रसर होते  जाते  हैं.


मेरी पिछली पोस्ट 'सीता जन्म -आध्यात्मिक चिंतन-५' में  'जप यज्ञ' पर कुछ प्रकाश डाला गया था.
इस पोस्ट में मैं हनुमान जी के स्वरुप का आध्यात्मिक चिंतन करने का प्रयास करूँगा. हनुमान जी  
वास्तव में 'जप यज्ञ'  व 'प्राणायाम' का साक्षात ज्वलंत  स्वरुप ही हैं.साधारण अवस्था में  हमारे  मन, 
बुद्धि,प्राण अर्थात हमारा अंत:करण  अति चंचल हैं जिसको कि  प्रतीक रूप मे हम वानर या कपि भी 
कह सकते हैं. लेकिन जब हम 'जप यज्ञ'  व  'प्राणायाम ' का सहारा लेते हैं तो  प्राण सबल होने लगता है. 
कल्पना कीजिये जब अंत:करण प्राणायाम व 'जप यज्ञ' से पूर्ण संपन्न हो जाये  तो उसका  स्वरुप   
क्या होगा .शास्त्रों में 'हनुमान जी' की कल्पना  मेरी समझ में इसी  प्रकार के अंत:करण से ही  की गई  है.
'जप यज्ञ' या 'प्राणायाम' बिना वायु के संभव नही है.इसीलिए हनुमान जी को 'पवन पुत्र', 'वात जातं'  
कहा गया है.  'जप यज्ञ' व 'प्राणायाम' से पूर्ण संपन्न  अंत: करण को  'वानराणामधीशं'  नाम से भी 
पुकारा गया  है.क्योंकि ऐसा अंत:करण ही समस्त अंत;करणों का स्वामी हो सकता है जो  प्रचंड शक्ति 
पुंज व  अग्निस्वरूप होने के कारण 'हेमशैलाभदेहं' के रूप में भी ध्याया जा सकता है.जिसमें समस्त 
विकारों,अधम वासनाओं को भस्म करने की  स्वाभाविक सामर्थ्य   है. ऐसा अंत:करण सकल गुण निधान,
ज्ञानियों में सर्व प्रथम,राम जी का प्रिय  भक्त भी होना ही चाहिये.इस प्रकार से अंत; करण की सर्वोच्च  
अवस्था का हनुमान जी के रूप में ध्यान कर,  हम 'जप यज्ञ' व 'प्राणायाम' का अवलंबन करें तो ही 
हनुमान जी की वास्तविक पूजा  व आराधना  होगी.


हम देखते हैं कि जगह जगह हनुमान जी के मंदिर बने हुए हैं. मंगलवार को हनुमानजी पर प्रसाद चढाने 
वालों की  लंबी भीड़ भी लगी होती है.हम  अधिकतर अंधानुकरण करते हुए  हनुमान जी की मूर्ति के 
मुख पर प्रसाद लगा, या हनुमान जी पर सिन्दूर आदि का लेप कर अपनी इतिश्री समझ लेते हैं. क्या 
इस प्रकार के कर्म काण्ड से  ही हमारा अंत:करण सबल हो पायेगा? यदि हनुमान जी की भक्ति का हमें 
वास्तविक लाभ लेना है तो निश्चित ही  हमें जप यज्ञ  व प्राणायाम से  अपने अंत:करण को सबल करना 
होगा. तभी  हनुमान जी प्रसन्न होकर हमें राम जी से मिलवा देंगें यानि 'सत्-चित -आनंद' स्वरुप का 
साक्षात्कार करवा देंगें. क्योंकि  वे ही तो रामदूत  भी हैं.


कहते हैं हनुमान जी सुग्रीव के सेनापति थे. सुग्रीव वह है जिसकी ग्रीवा सुन्दर हो अर्थात  जो अच्छा गायन 
करे. जो सांसारिक विषयों का गायन करे वह अच्छा गायन  नही कहलाता. लेकिन जो केवल  परम  तत्व  
का या परमात्मा का ही गायन करे वही अच्छा गायन करने वाला सुग्रीव कहलाता है. गायन  में   'प्राणायाम' 
और 'जप यज्ञ'  की प्रमुख भूमिका  हैं .ऐसा गायन जब  संगीत का  सहारा लेता है तो  'सुग्रीव' बन पाता है. 
इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि यदि हम अच्छा गायन करना चाहें , या सुग्रीव बनना चाहें  तो  बिना 
हनुमान जी को  अपना सेनापति नियुक्त करे  ऐसा नही कर सकते हैं .सुग्रीव की मित्रता राम जी से कराने 
में  हनुमान जी ही सहायक होते हैं. 


हनुमान तत्व को सही प्रकार से समझ कर ध्याया जाये तो हमारे  बल, बुद्धि ,इच्छा शक्ति निश्चित रूप से 
ही विकसित होंगें और शुद्ध आत्म ज्ञान की प्राप्ति हमें अवश्य हो जायेगी.फिर तो सब वन ,वनस्पति,पर्वत 
आदि हमें पवित्र ही जान पड़ेंगें. इसीलिए कबीरदास जी भी अपनी वाणी में कहते हैं:-


                             सब बन तो तुलसी भये, परबत  सालिगराम
                             
                             सब  नदियें  गंगा  भई, जाना  आतम   राम  


आप सुधि जनों  ने मेरी पिछली सभी पोस्टों पर अपने अमूल्य विचार व टिपण्णी  प्रस्तुत कर हर पोस्ट 
को भरपूर  सार्थकता प्रदान की है. यहाँ तक कि मेरी  पिछली  पोस्ट 'सीता जन्म- आध्यात्मिक चिंतन-५'
को तो  अब तक की सबसे अधिक लोकप्रिय  पोस्ट बना दिया है. इसके लिए मैं आप सभी का हृदय से 
आभारी हूँ.मुझे आप सभी से बहुत कुछ सीखने को  मिल रहा है.विशेषकर डॉ. नूतन गैरोला जी, 
'Human' जी, वंदना जी,हरकीरत 'हीर' जी, शिल्पा जी , अशोक व्यास जी  ने अपने अमूल्य विचारों 
से मेरे प्रयास का मूल्य कई गुणा बढ़ा दिया है. 
  
मैं आप सब से विनम्र क्षमाप्रार्थी  हूँ कि आपके स्नेहिल आग्रह के बाबजूद यह पोस्ट मैं कुछ देरी से 
प्रकाशित कर पाया हूँ. मेरी यह कोशिश रहेगी कि  प्रत्येक  माह  मैं एक पोस्ट प्रकाशित कर दूँ.
क्योंकि व्यस्तता के कारण मैं अपनी पोस्ट जल्दी प्रकाशित नही कर पाता हूँ.इसके अतिरिक्त  
सभी सुधिजन  भी  जल्दी  जल्दी पोस्ट पर  नही आ पाते हैं.और यदि जल्दी जल्दी पोस्ट प्रकाशित 
हो तो पिछली पोस्टें उनके  पढ़ने से रह जाती हैं.मेरा उद्देश्य ब्लॉग जगत के अधिक से अधिक जिज्ञासू 
और प्रभु प्रेमी सुधिजनों से  विचार विमर्श और सार्थक सत्संग  करना है.इसलिये मैं सभी से यह भी 
विनम्र निवेदन करना चाहूँगा कि जब भी समय मिले  आप  मेरी पिछली पोस्टों का भी अवलोकन जरूर 
करें व  अपने अमूल्य  विचार   प्रस्तुत करने की कृपा करें.


यूँ तो  हनुमान लीला अपरम्पार है.फिर भी अगली पोस्ट में  हनुमान लीला का कुछ और भी चिंतन करने 
का प्रयत्न करूँगा .आशा है मेरी इस पोस्ट पर आप सभी प्रेमी सुधिजन  अपने अमूल्य विचार और अनुभव 
भरपूर प्रस्तुत  कर मुझे  अवश्य  ही अनुग्रहित करेंगें.