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Wednesday, July 20, 2011

सीता जन्म -आध्यात्मिक चिंतन -२

किसी भी  चाहत की उत्पत्ति आनंद प्राप्ति के लिए   होती है. यह अलग बात है कि उस  चाहत की
पूर्ति पर आनंद मिले या न मिले. अथवा जो आनंद मिले वह स्थाई न होकर अस्थाई ही रहे.
जैसे जैसे हमारी सोच व अनुभव परिपक्व होते जाते  है ,हम अस्थाई आनंद की अपेक्षा स्थाई
आनंद की चाहत को अधिक महत्व देने लगते हैं.वास्तव में  चाहत  माया  का ही रूप है.जीव और
ईश्वर के बीच ईश्वर को पाने की चाहत अर्थात 'श्री ' (सीता) जी किस प्रकार से शोभा पाती हैं इसका
वर्णन  करते  हुए गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं :

            उभय बीच श्री सोहइ  कैसी , ब्रह्म जीव बिच माया जैसी.

जैसा कि मैंने अपनी पिछली  पोस्ट में कहा कि 'सीता जन्म' हृदय स्थली में 'सत्-चित-आनंद' को पाने
की  सच्ची चाहत का उदय होना  है.अर्थात ऐसी चाहत जो हमे 'स्थाई चेतन आनंद' की प्राप्ति करा सके,
जिस  आनंद को   हमारे शास्त्रों में 'सत्-चित-आनंद' या परमात्मा के नाम से पुकारा गया है.
'सीतारूपी' चाहत अत्यंत दुर्लभ है जो आत्मज्ञान  के अनुसंधान व खोज  का ही  परिणाम है,सीताजी
भक्ति स्वरूपा   हैं, जो   समस्त चाहतों की 'जननी' , अत्यंत सुन्दर , श्रेय व कल्याण करनेवाली है.
सीता जी की सुंदरता का निरूपण करते हुए गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते हैं :-

             सुंदरता  कहुं सुन्दर करई, छबि गृहं दीपसिखा जनु  बरई
             सब उपमा कबि  रहे जुठारी , केहिं  पटतरौं  बिदेहकुमारी 


सीताजी की शोभा, सुंदरता को भी सुन्दर करनेवाली है.वह ऐसी मालूम होती हैं मानो सुन्दरता रुपी घर 
में दीपक की लौं जल रही हो.सारी उपमाओं को तो कवियों ने झूंठा कर रखा है. मैं जनक नंदनी श्री 
सीताजी की किससे  उपमा दूँ .

कहते हैं सीताजी का अवतरण तब हुआ था जब  वैदेह राजा जनक ने प्रजा के हितार्थ वृष्टि कराने
हेतू भूमि में हल चलाया था और हल की नोंक भूमि में गड़े एक घड़े से टकराई थी.उस घड़े में  से ही एक
अति सुन्दर सुकोमल कन्या प्रकट हुई,जिसका नाम हल के नुकीले भाग के नाम पर "सीता" रखा गया.
जनक जी ने इस कन्या को अपनी पुत्री के रूप में अपनाया इसलिये उनका नाम "जानकी" या "वैदेही"
भी कहलाया. राजा जनक पूर्ण आत्मज्ञानी हैं  जिन्हें अपनी देह में भी किंचित मात्र आसक्ति नहीं है .
इसीलये उन्हें 'वैदेह' कहते हैं. वे अपने  आत्मस्वरूप में सदा स्थित हो आत्म तृप्त रहते हैं.उन्हें कर्म
करने की कोई आवश्यकता नहीं है तो भी लोकहितार्थ  वृष्टि हेतू पृथ्वी पर हल चलाने का 'कर्म योग'
करते हैं. जिसके फलस्वरूप 'सीता'  यानि भक्ति का प्रादुर्भाव होता है.वृष्टि का अभिप्राय यहाँ
आनंद से ही है.

उपरोक्त कहानी से यह समझ में आता है कि भले ही व्यक्ति पूर्ण आत्मज्ञानी भी हो जाये,परन्तु
जनकल्याण के लिए उसे 'जमीन में हल चलाने ' अर्थात निरंतर 'कर्मयोग'  की भी आवश्यकता
है, जिससे   'भक्तिरुपी' सीताजी   का उदय हो  पाए और  चहुँ और आनंद की वृष्टि  हो सके. हल की
नोंक उस आत्मज्ञानी व्यक्ति की प्रखर बुद्धि का प्रतीक है जिससे वह परम चाहत  'सीता' जी की खोज
का कार्य संपन्न कर् पाता है.

सीता जी  'सत्-चित-आनंद' परमात्मा यानि 'राम' का ही  वरण करतीं  हैं. राम को 'राम को पाने की
चाहत' यानि सीताजी  अत्यंत प्रिय है. इसलिये इनको 'रामवल्लभाम'  भी कहते हैं.सीताजी की वंदना
करते हुए  श्रीरामचरितमानस के शुरू में ही  गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं :-

                     उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं          क्लेशहारिणीम
                     सर्वश्रेयस्करीम सीतां नतोSहं      रामवल्लभाम

जो उत्पत्ति ,स्थिति और संहार करनेवाली हैं, कलेशों का हरण करनेवाली  हैं, सब प्रकार से कल्याण 
करनेवाली हैं,श्री राम जी की प्रियतमा हैं,उन सीता जी को मैं नमस्कार करता हूँ.


सीता जी यानि भक्ति  ही जीव जो परमात्मा का  अंश है को अंशी अर्थात परमात्मा से जोड़ने में समर्थ हैं
वे हृदय में आनंद का 'उदभव' करके उसकी 'स्थिति' को बनाये रखतीं हैं.हृदय की समस्त नकारात्मकता
का 'संहार'  करके  कलेशों  का हरण कर लेतीं  हैं और सब प्रकार से जीव का कल्याण ही  करती रहतीं  हैं.

.ऐसी 'भक्ति' माता  सीता जी का  मैं हृदय से  नमन करता हूँ .

                 सीय राममय सब जगजानी, करउ प्रनाम जोरि जुग पानी 


अगली पोस्ट में हम 'सीताजी' व उनकी लीला के  आध्यात्मिक चिंतन करने का एक और प्रयास करेंगें.

मैं सभी सुधिजनों का हृदय से आभारी हूँ जिन्होंने मेरी पिछली पोस्ट 'सीता जन्म -आध्यात्मिक चिंतन-१'
पर अपनी बहुमूल्य टिप्पणियाँ देकर मेरा उत्साहवर्धन किया है . जिससे यह पोस्ट मेरी लोकप्रिय पोस्टों
(Popular Posts) में अति शीघ्र ही चौथे स्थान पर आ गई है.

मैं आशा करता हूँ कि इस पोस्ट पर भी सुधिजनों का प्यार और कृपा  मुझ पर बनी रहेगी.