Followers

Saturday, May 21, 2011

रामजन्म - आध्यात्मिक चिंतन -४




यह मेरे लिए अति आनंद की बात है कि प्रिय सुधिजनों  ने  'रामजन्म -आध्यात्मिक चिंतन' पर
प्रकाशित मेरी पिछली तीनों पोस्टों  का अपनी आनंदपूर्ण टिप्पणियों से भरपूर स्वागत किया है.
देवेन्द्र भाई का कहना है कि 'संगम सरयू स्नान कर धवल व पवित्र हो जाता है. 
भाई अरविन्द मिश्रा जी कहते हैं कि 'अब सरयू भी सहज ध्यानाकर्षण की अधिकारणी हो
जाती है.'  हालाँकि मेरी  पिछली पोस्ट 'रामजन्म-आध्यात्मिक चिंतन -३' में सरयू  का निरूपण
आत्म-ज्ञान रुपी सरिता से किया  गया है, फिर भी रूचि और प्रसंग को देखते हुए इस पोस्ट में
हम 'सरयू' जी  पर विचार करने की और कोशिश करते हैं.

आईये,  मेरी  पिछली पोस्ट 'रामजन्म- आध्यात्मिक चिंतन-३'  में वर्णित  रामचरित्र मानस की
निम्न पंक्तियों का स्मरण करते हुए आगे बढते हैं

             "बंदउ  अवधपुरी  अति   पावनि,  सरजू  सरि  कलि   कलुष  नसावनि"

अवधपुरी की वंदना  ऐसी अति पवित्र पुरी के रूप में की गई है जहाँ 'सरयू' जैसी सरिता बह रही
है जो कलियुग की कलुषता का नाश करनेवाली है .रामचरितमानस में सरयू के बारे में यह भी
लिखा गया है कि

                       उत्तर दिसि सरजू बह निर्मल जल गंभीर
                       बाँधे  घाट मनोहर   स्वल्प  पंक  नहिं तीर

अर्थात अवधपुरी की उत्तर दिशा में सरयू बह रही हैं जिसका जल निर्मल और गहरा है.
मनोहर घाट बंधे हुए है, किनारे पर जरा भी कीचड़ नहीं है.

यह देखा गया है कि जब कोई नदी या सरिता जो  निरंतर प्रवाहित होती है, जिसका जल
शुद्ध ,  पेय  व कल्याणकारी होता है, जिसपर स्नान आदि करने के लिए सुन्दर घाट निर्मित
किये जा सकते हैं  व जिसके किनारे कीचड़ आदि से   मुक्त होते हैं  तो उस नदी  के
आस पास संपन्न नगर व पुरी भी बस जाते हैं.

अवधपुरी हृदय में स्थित  एक ऐसी ही संपन्न पुरी है जहाँ समस्त दैवीय संपदा जैसे 'अभय
यानि मृत्यु आदि समस्त भयों का अभाव, अंत:करण की निर्मलता,  उत्तम कर्मों का आचरण ,
क्रोध का सर्वथा अभाव, दया, अहिंसा आदि सद्गुणों का निरंतर विकास होता रहता  हैं. यह सब
विकास इसीलिए संभव होता है क्यूंकि अवधपुरी की उत्तर दिशा में 'आत्म ज्ञान' रुपी सरयू
नदी निरंतर बहती रहती है. उत्तर दिशा 'परिपक्वता'  का प्रतीक है. यानि 'आत्मज्ञान' केवल
कोरा  या थोथा नहीं  बल्कि  गहन अनुसंधान और अनुभव  पर आधारित है जिसमें स्वल्प भी
अज्ञान रुपी कीचड़ का लेश मात्र  नहीं है.

अपनी आत्मा का ज्ञान हमें भय मुक्त करने में सर्वथा समर्थ है. जब  मैं अपने शरीर को केवल
वस्त्र मानकर स्वयं को परमात्मा का अंश 'सत्-चित-आनंद' मानता हूँ जो नित्य,अजर,अमर
अवध,आनंदस्वरूप है  और निरंतर यही 'command'  अपने मस्तिष्क रूपी कंप्यूटर को देता रहता
हूँ, , तो मेरे हृदय में नकारात्मकता का शमन हो सकारात्मकता व आनंद का संचार होने
लगता है.जैसा कि भगवद्गीता (अध्याय २ श्लोक २२ ) में भी  निम्न प्रकार से वर्णित है

                              वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
                              नवानि गृह्णाति नरोSपराणी
                              तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
                              न्यन्यानि संयाति नवानि देही
अर्थात जैसे हम  शरीर के पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करते हैं,वैसे
ही हमारी आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नए शरीर को प्राप्त होता है.

यह देह भी  हमेशा एकसा नहीं रहता.पहले बचपन, बचपन की मृत्यु हो जवानी , जवानी की 
मृत्यु हो बुढ़ापा,और फिर देह  ही अंततः मृत्यु को प्राप्त हो जाता है.
वास्तव में आत्मा के तीन शरीर हैं (१) स्थूल या  पंच भूत से निर्मित  भौतिक शरीर जिसकी
मृत्यु होती है और यही नाशको प्राप्त होता है (२) सूक्ष्म शरीर जो मन,बुद्धि,अहंकार से
निर्मित है (३) कारण शरीर जो सकाम  कर्मों के परिणाम स्वरुप संचित वासनाओं के रूप में
निर्मित  है.

स्थूल शरीर  के विनाश होने पर 'सूक्ष्म' और 'कारण' शरीर हमारी आत्मा के साथ ही  नवीन
स्थूल शरीर की प्राप्ति की  ओर अग्रसर हो जाते हैं ,जो हमारी संचित वासनाओं अर्थात
' कारण शरीर' के अनुरूप ही  मिला करता है.'तमोगुणी' वासनाओं  से निम्न योनि(कीट,पतंग,
पशु,पक्षी आदि) ,'रजोगुणी' वासनाओं से साधारण मनुष्य योनि और 'सतोगुणी' वासनाओं से
उच्च मनुष्य योनि(संत,महापुरुष आदि) जिसे देव योनि भी कहते हैं प्राप्त होती हैं.इन वासनाओं
का   सर्जन  और विसर्जन  हम अपने जीवन काल में अपने कर्म,भाव और विचारों के द्वारा
करते रहते हैं.जिस जिस प्रकार की वासनाएं अर्जित होती जातीं हैं,वैसा वैसा  ही  'कारण शरीर '
का  निर्माण भी  होता  जाता है. 'कारण शरीर ' के आधार पर ही फिर  'सूक्ष्म' शरीर  व 'स्थूल'
शरीर का निर्माण होता है . परन्तु, हमारा  मरण  कभी नहीं होता. जन्म से पहले  और मृत्यु के
पश्चात भी  हम आत्मा रूप में हमेशा विद्यमान रहते है.

यदि  अपने जीवन काल में ही मैं यह आत्मज्ञान   प्राप्त करलूँ कि न मैं स्थूल शरीर हूँ,
न ही सूक्ष्म और न ही कारण शरीर बल्कि ये मेरे केवल  वस्त्र मात्र हैं जिनको  मैं अपने
कर्म,विचार और भावों  के द्वारा बदलता रहता हूँ,  मेरा वास्तविक स्वरूप निर्गुण, निराकार ,
नित्य, अजर, अमर, 'सत्-चित आनंद है ' और यह आत्मज्ञान मेरे स्थूल शरीरान्त तक बना
रहे  तो  नवीन शरीर ग्रहण करते समय भी  मैं पिछला सब याद रख सकता हूँ व  आनंद में
रमण करते हुए अपना विकास निरंतर  ही करते रह सकता हूँ .निरंतर विकास का अर्थ यहाँ
निष्काम कर्मयोग के द्वारा प्रारब्ध या 'कारण शरीर' के क्षय करने से है .'कारण  शरीर' की वजह
से ही स्थूल शरीर के बंधन में बंधना पड़ता है. 'कारण शरीर' के पूर्णतया क्षय होने पर  स्थूल
शरीर की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है,जिसे जीव की मुक्ति माना जाता है.


परन्तु, आत्मज्ञान न होने की स्थिति में  हम खुद  को अज्ञानवश स्थूल शरीर ही  मान
लेते हैं इसीलिए हमारे  मस्तिष्क में जाने अनजाने यही 'command'  जाता रहता  है कि
स्थूल  शरीर के मरण के साथ ही हमारा भी मरण हो जायेगा. जिस कारण हम स्थूल  शरीर
की मृत्यु के समय मृत्यु भय से ग्रस्त हो अपनी तमाम याददाश्त को ही विस्मृत कर डालतें हैं
और जब नवीन शरीर ग्रहण करते हैं तो पिछला कुछ भी याद नहीं रहता. जबकि ऐसा बचपन
या जवानी की समाप्ति पर नहीं होता.  क्यूंकि बचपन और जवानी की मृत्यु हम सहज मानते हैं
और मस्तिष्क को यह 'command'  कभी नहीं देते कि हम मर गए हैं, इससे ह्मारी याददाश्त
बनी रहती है. ऐसे ही  सोते वक़्त भी  हम यह  कदापि महसूस नहीं करते कि सोने से हम मर
जायेंगें. इसलिये सोकर उठने पर याददाश्त बनी रहती है.  स्थूल शरीर की मृत्यु  के समय
केवल अज्ञान के कारण ही हम खुद के मरने का  गलत 'command'  दे बैठते हैं. फलस्वरूप
 'याददाश्त' का लोप हो  जाता है और सम्पूर्ण ज्ञान विस्मृत हो जाता है.

आत्मज्ञान के द्वारा  हम स्वयं के 'आनंद' स्वरुप का बोध कर पाते हैं .आनंद का  अक्षय
स्रोत अंत:करण में ही  निहित  है. आत्म बोध से  'कारण शरीर' का स्वाभाविक रूप से  क्षय होता है.
आत्मज्ञान रुपी विचार प्रवाह से  आनंद की तरंगें हृदय में उठने लगतीं हैं. जब यह प्रवाह
हृदय में अनवरत व नित्य  प्रकट होने  लगता है तो  दिव्य सरिता  का रूप धारण कर हृदय
की कलुषता  का निवारण करता रहता  है और हृदय को पवित्र पावन बना देता  है,जिससे हृदय
में उपरोक्त वर्णित अवधपुरी का भी  वास होने लगता है. यह आत्मज्ञान रुपी विचार प्रवाह की
दिव्य सरिता ही 'सरयू' नदी  है.

आत्मा  का   ज्ञान   वास्तव  में  एक आश्चर्य ही है. भगवद्गीता (अध्याय २ श्लोक २९) में
इसका निरूपण निम्न प्रकार से किया गया है.

                "कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा  को आश्चर्य की भांति देखता है 
                  और  वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्व का आश्चर्य  की भांति 
                  वर्णन करता है  तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भांति 
                  सुनता है  और कोई  कोई तो सुनकर भी इसे नहीं जानता "

आश्चर्य इसलिये है कि आत्मा के  विलक्षण आनंद के अनुभव की किसी भी  अन्य आनंद से
तुलना ही नहीं की जा सकती. .आत्मज्ञान रूपी    'सरयू' के जल को  इसी वजह से अति गहन
और गंभीर बताया गया  है.

कहते हैं सरयू के जल में राम जी यानि 'सत्-चित आनंद ' ने 'जल समाधि' ली हुई है.
जिस कारण इसके जल का सेवन करने से 'चिर स्थाई आनंद' का अनोखा स्वाद भी
मिलता है और जीव सहज  शांति  को प्राप्त हो जाता  है. फिर चलिए, अब सोचना क्या है,
पवित्र पावन सरयू नदी  के घाट पर  नित्य स्नान, ध्यान और आचमन कर असीम आनंद
में गोते लगा लिए जाएँ. 

आत्मज्ञान के और अधिक अनुसंधान हेतू श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय-२ (सांख्य योग) का अध्ययन
किया जा सकता है.''साख्य योग" में आत्मज्ञान का समन्वय इस प्रकार से किया गया है जिससे
हम जीवन में निष्काम कर्मयोग प्रतिपादित करने में भी सक्षम हो सकें. इसीलिए भगवद्गीता में
सांख्य योग के पश्चात ही कर्मयोग का निरूपण अध्याय-३ में किया गया है.



राम जी ,दशरथ जी व कौसल्या जी का तत्व चिंतन मेरी पोस्ट 'रामजन्म- आध्यात्मिक चिंतन-१'
में किया गया है.
चारो युगों अर्थात सत् युग ,त्रेता ,द्वापर व कलियुग का तत्व चिंतन मेरी पोस्ट
'रामजन्म -आधात्मिक चिंतन -२'  में किया गया है. तथा
अवधपुरी/अयोध्यापुरी,उपवास का तत्व चिंतन मेरी पोस्ट 'रामजन्म -आध्यात्मिक चिंतन-३' में
किया गया है.
सुधिजन उपरोक्त पोस्टों  का भी अवलोकन कर अपने सुविचारों  की आनंद वृष्टि कर सकते हैं.

मेरा यह सादर अनुरोध है कि उपरोक्त पिछली  पोस्टों का बार बार अवलोकन किया जाये,
जिससे राम, दशरथ, कौसल्या, त्रेता युग, अवधपुरी की स्थापना 'सरयू' जी की कृपा से हमारे हृदय
में ही हो, और 'राम मंदिर'  के लिए हमें दर दर न भटकना पड़े. यदि हृदय में 'राम मंदिर'
का सही प्रकार से  निर्माण हो जाये तो भौतिक जगत में राम मंदिर कहीं भी हो, इसका कोई
फर्क पड़नेवाला नहीं है.कहतें है आस्था और विश्वास से जैसा अंतर्जगत में हो वैसा ब्राह्य
जगत में भी घटित हो जाता है.

सुधिजन इस विषय कि 'रामजन्म और राम मंदिर का क्या स्वरुप हो' पर विस्तार से
अपने अपने विचार प्रकट करें तभी  इन  पोस्टों की सार्थकता का भी अनुभव हो पायेगा.

ओम् सच्चिदानन्देश्वराय नमो नम:

                 







    

Thursday, May 5, 2011

रामजन्म - आध्यात्मिक चिंतन - ३

आनंद का चिंतन करना अदभुत है,  मंगलकारी है . आनंद का एक एक पद, एक एक शब्द,
एक एक अक्षर मधुरातिमधुर  है. आप सुधिजनों ने मेरी पोस्ट 'रामजन्म - आध्यात्मिक चिंतन- १' 
'रामजन्मआध्यात्मिक चिंतन- २'  पर जो टिप्पणियाँ कीं उनमें आनंद ही आनंद समाया है  ,
जिससे मन आनंद निमग्न हों गया है. और विशाल भाई के इन उद्गारों ने  " सत आनंद ,
चित आनंद, असीम आनंद,बोध स्वरूपानंद ,ज्ञान स्वरूपानंद,अनिर्वचनीय  आनंद,अचिन्त्य आनंद,
अपरिमेय आनंद,आनंदमय आनंद, बस आनंद ही आनंद." ने तो मानो आनंद की बरसात ही
कर दी है.

आईये चलिये आनंद की इसी तरंग में ही अब  आगे बढते हैं. राम,  दशरथ, कौशल्या, युगों का
तात्विक चिंतन कर लेने के पश्चात अब 'अवधपुरी' या 'अयोध्यापुरी' का तत्व चिंतन करने का
प्रयास करते हैं. गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरितमानस में लिखते हैं:-

                              नौमि   भौम   वार   मधुमासा,  अवधपुरी    यह    चरित    प्रकासा 
                              बंदउ  अवधपुरी अति पावनि, सरजू सरि कलि कलुष नसावनि

अवधपुरी का शाब्दिक अर्थ है ऐसी पुरी जहाँ कोई वध न हो. इसी प्रकार इसका पर्यायवाची
अयोध्यापुरी का भी अर्थ हैं ऐसी पुरी  जहाँ कोई युद्ध न हो. श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय ५, श्लोक १३)
 के अनुसार 'नवद्वारे पुरे देही'  कहकर इस नौ छिद्रों वाले  शरीर को ही नवद्वार रुपी पुरी
बतलाया गया है जिसमें  जीव यानि 'देही' का निवास है.

अपने अपने दृष्टिकोण,भावों और विचारों से हम अपने ही अंदर 'अवधपुरी' या 'लंका पुरी' की
स्थापना कर लेतें हैं. यदि हम स्वयं को शरीर मानकर अपने ही  अहंकाररुपी रावण के साम्राज्य
में आसुरी सम्पदा ईर्ष्या, द्वेष,चिंता, दुराशा,दंभ आदि को लेकर जीते हैं तो लंकापुरी की स्थापना
हो जाती हैं.परन्तु, अवधपुरी की स्थापना के लिए अपने को शरीर मानना छोड़ हमें सद्विवेक का
अनुसरण कर  'आत्मज्ञान'  की आवश्यकता है.

हमारे शास्त्रों में शरीर को  आत्मा का एक  आवरण मात्र बताया गया है. मै जब अपने
को शरीर मानता हूँ तो उसका 'वध' अथवा मरण  अवश्यम्भावी  है.जिस कारण मृत्यु भय
मुझे सताने लगता है.मृत्यु भय के रहते हृदय में 'रामजन्म' यानि चिर स्थाई आनंद का उदय
होना सम्भव ही नहीं है मृत्यु भय के कारण ही मै जीवन में तरह तरह की कुचेष्टायें  करता हूँ.
समस्त भ्रष्ट आचरण की जननी ऐसी कुचेष्टाएं ही हैं .परन्तु , जब मै स्वयं को
'सत्-चित-आनंद' परमात्मा का अंश 'आत्मा'  मानता हूँ तो आत्मा के  अवध होने के कारण मुझे
यह समझ आ जाता है कि मेरी   मृत्यु किसी भी प्रकार से भी सम्भव नहीं है. मै मृत्यु के
भय से निजात पा अपने ही स्वरुप 'आनंद' का  निर्बाध रूप से चिंतन व अनुभव करने में
समर्थ  हो जाता हूँ.  श्रीमद्भगवद्गीता में आत्मा के बारे में कहा गया है :-

                                  नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः
                                  न  चैनं  क्लेदयन्त्यापो  न शोषयति मारुत:
अर्थात इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती,जल गला नहीं सकता,
और वायु सुखा नहीं सकती.

आत्मा का स्वरुप अजर है, अमर है,नित्य है, 'सत्-चित-आनंद' है, अवध है, अर्थात आत्मा का
'वध' कभी भी सम्भव नहीं है  जब इन भावों और विचारों का विवेकपूर्ण पोषण कर मै अपने
हृदय में गहन चिंतन द्वारा अच्छी प्रकार से स्थापित कर लेता हूँ तभी मेरे हृदय में 'अवधपुरी'   
स्थापित होने  लगती है.  मृत्यु का डर मेरे  हृदय से निकल जाता है ,  हृदय  शांत हो जाता है. 
मेरे विचारों और भावों में भी कोई किसी प्रकार का  संघर्ष या युद्ध नहीं रह जाता ,  इसीलिए 
अवधपुरी को  'अयोध्यापुरी' भी कहा गया है. ऐसी अयोध्या या अवधपुरी में ही राम यानि
'सत्-चित-आनंद' का जन्म नवमी तिथि, दिन मंगलवार (भौम) और मधुमास यानि बसंत ऋतु
में होता  है.

नवमी तिथि,मंगलवार और मधुमास  हृदय की उन स्थिति का सूचक हैं जब आत्मज्ञान की
साधना ,अभ्यास और उपवास परिपक्वता को प्राप्त हो,और हृदय में मंगल व उल्लास का सर्वत्र
संचार हो जाये.  'उपवास' का अर्थ   केवल कुछ खाना पीना छोडना मात्र नहीं ,बल्कि
मन बुद्धि के साथ राम के निकट जप, ध्यान और उपासना के द्वारा  वास करना है .
'सत्-चित-आनंद' का भाव तब  विभिन्न रंगों से मन को सदा सराबोर  किये रखता है और
मन  सहज ही गा उठता है :-

                        होली खेले रघुबीरा,   अवध में होली खेले रघुबीरा

ऐसी पावन अवधपुरी को हमारा शत शत नमन है, जिसमें आत्मज्ञान रूपी 'सरजू' नदी सदा
प्रवाहित होती रहती  है, जो 'कलियुग' की कलुषता  का हृदय से नाश करती है और जिसमें 
राम का जन्म होकर   राम चरित्र का प्रकाश हो पाता  है. अफ़सोस!  ऐसे विकार रहित प्रभु
के हृदय में रहते भी जगत के सब जीव दीन और दुःखी है, नाम का निरूपण करके नाम
का यत्न पूर्वक जप रुपी  साधन करने से वही राम ऐसे प्रकट हो जाता है जैसे रत्न के
जानने से उसका मूल्य. इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं :-
        
               अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी , सकल जीव जग दीन दुखारी
               नाम निरूपन  नाम  जतन ते , सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें

राम,  दशरथ व कौशल्या  के बारे में मेरी पोस्ट 'रामजन्म-आध्यात्मिक चिंतन-१' तथा चारो
युगों (सतयुग,द्वापर ,त्रेता एवम कलियुग) के बारे में मेरी  पिछली  पोस्ट
'रामजन्म-आध्यात्मिक चिंतन-२' में  प्रकाश डाला गया है.जो सुधिजन चाहें वे  इन पोस्टों 
का अवलोकन कर अपने सुविचार प्रकट कर आनंद की वृष्टि कर  सकते हैं.