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Tuesday, February 22, 2011

मो को कहाँ ढूंढता रे बन्दे

 जब जाना कि बुद्धि द्वारा  मन को वश में लाया जा सकता है, तो हमने भी मन को वश में करने की कोशिश शुरू की. अनेक उपाय किये, लेकिन यह क्या ?  मन पर जब जब लगाम लगाने का प्रयत्न किया, मन महाराज तो बन्दर की तरह उछल कूद मचाने में लग गए.  तो हमने केवल राम जी, वंदनाजी और दिव्याजी की मेरी पोस्ट 'मन ही मुक्ति का द्वार है'  पर की गयी टिप्पणिओं को ध्यान में रख कबीर जी के इस दोहे को याद किया...

 " बाजीगर का बंदरा ऐसे मन जिउ साथ , ना ना नाच नचाइके राखे अपने हाथ "

    हम  यह सोचने लगे कि कैसे बुद्धि को बाजीगर बनाया जाये जिससे  विचारों द्वारा इस मन के बन्दर को ना ना नाच नचा के भी अपने हाथ में रखा जा सके. ताकि यह उछल कूद भी मचाये तो बाजीगर के कहे अनुसार  मनोरंजन करते हुए .

    शास्त्रों को  जानने की कोशिश की तो पता चला ईश्वर का ध्यान करना चाहिए,  जो "सत-चित-आनंद"
स्वरुप है और यह भी कि जीव ईश्वर का अंश है . अर्थात जीव में भी ' सत-चित -आनंद ' का भाव होना ही चाहिए. तो मिल गया हमें भी सूत्र बुद्धि की बाजीगिरी करने का.

एकांत में बैठ गए और लगे ध्यान करने ईश्वर का और अपने खुद के स्वरुप का.  सारा ध्यान बाहर से हटा, अन्दर की तरफ लगा,  पहले तो मन को फुसलाया यह कह कर ' कि  हे मेरे मन तू ही सत स्वरुप है ,तू कल भी था ,आज भी है, और कल भी रहेगा क्योंकि तेरा मालिक मै और मेरा मालिक वह  ईश्वर ' सत ' हैं  जो हमेशा से थे,  हमेशा से हैं और हमेशा ही रहेंगे , तेरा कभी  मरण नहीं है,  मरण है तो केवल इस शरीर  का .'  इतना बार बार कहने से  मन महाराज की  गुत्थी कुछ कुछ ढीली पड़ने लगी .बहुत डरा हुआ था मरने से . अब मन को हमने आगे बहलाना शुरू किया 
 ' कि हे मेरे  मन तू ही चित स्वरुप है , तेरे में से ही चेतना   की शक्ति प्रस्फुटित होती है क्योंकि तेरा मालिक मै और मेरा मालिक ईश्वर 'चित'  अर्थात चेतन स्वरुप है,तू ही जोत स्वरुप है, जो अंतर में प्रकाशित है '  मन में अब ऐसा लगने लगा कि कुछ जागर्ति सी आ रही है  और चेतना से ओतप्रोत होता जा रहा  है मन मेरा.  मै  उत्साहित हो गया और फिर मन से मैं यह  कहने लगा ' हे मेरे मन तू ही तो आनंद स्वरुप है, क्योंकि तेरा मालिक मैं और मेरा  मालिक वह  ईश्वर केवल ' आनंद ' स्वरुप ही तो हैं. तू कहाँ दर दर की ठोकरें खाता फिर रहा है. तू ही तो आनंद का सागर है. तेरा आनंद निर्बाध है  यह ना किसी वस्तु पर निर्भर करता है ना किसी व्यक्ति पर और ना ही किसी स्थान पर. तू जिस वस्तु में आनंद मानता है वह  वस्तु आनंद देने लगती है,  जिस व्यक्ति में आनंद मानता है वह व्यक्ति आनंद देता नजर आता है  जिस स्थान में तू आनंद मानता है वह स्थान आनंदमय लगने लगता है, समस्त आनंद की लहरें तो तेरे में ही तो उठ रहीं  है .'  अब मन का बन्दर कुछ और  शांत सा हुआ और  धीरे धीरे लगा शान्ति के साथ आनंद का भी अनुभव करने.  बुद्धि की इस बाजीगिरी  पर नाज हो आया हमको . हालांकि यह मन का आनंद कुछ समय  का ही हुआ लेकिन बुद्धि की बाजीगिरी के द्वारा मन ने स्वाद तो चखा ही. .  हालाँकि  आसान नहीं है बुद्धि की बाजीगिरी करना,पर अभ्यास से कुछ तो होता ही है . शास्त्रों के अनुसार समस्त आनंद मन ही  में विद्यमान है .
इसीलिए कबीर जी ने कहा "मो को कहाँ ढूंढता रे बन्दे मै तो तेरे पास में .ना मैं मंदिर ना मै मस्जिद ना काबा कैलाश में ". अब आप ही बताएं कुछ और बुद्धि की बाजीगिरी और मन के आनंद के सम्बन्ध में.
 शास्त्र अनुसार  बुद्धि की उपरोक्त  बाजीगिरी के बारे में यदि आप   कुछ  सहमत से हों , तो आइये  मिलकर गायें और गुनगुनाएं

"भज गोविन्दम ,   भज गोविन्दम ,   गोविन्दम भज मूड  मते " 
  आनंदम       आनंदम      आनंदम

Friday, February 11, 2011

मन ही मुक्ति का द्वार है

मन के स्पंदन वाणी के माध्यम से मुखरित होते हुए इस ब्लॉग जगत में मै  सर्वत्र देख पा रहा हूँ .कहीं आशा के उजाले  से  घनीभूत,  कहीं निराशा की रात्रि से ओतप्रोत , कहीं यथार्थ की कड़वाहट में भी हास्य रस  की फुहार से गुदगुदाते हुए, कहीं ज्ञान और विज्ञानं की अनुपम छठा बिखेरते हुए ज्ञानीजन के मानस से  उत्सर्जित.  शायद इसीलिए ही मुझे अपने ब्लॉग का नाम "मनसा वाचा कर्मणा'  रखना अब सार्थक लग रहा है. जब सभी  सुधिजन ब्लोगर्स मनरूपी भाव समुंदर में गोते लगा रहे है तो क्यूँ न मै भी उनके साथ इस बहाने कुछ गोते लगाने का आनंद ले लूँ.  मेरी पहली पोस्ट  'ब्लॉग जगत में मेरा पदार्पण'  और फिर दूसरी पोस्ट 'जीवन की सफलता अपराधबोध से मुक्ति' पर जो टिप्पणियां मुझे मिली और मिल रही है उससे भी मेरा उत्साह वर्धन हुआ है.  इसीलिए अब इस पोस्ट को लिखने का मै साहस कर पा रहा हूँ जो मेरे ब्लॉग 'मनसा वाचा कर्मणा' की मनसा के अनुरूप है.

कहते है  ' मन के हारे हार है, मन के जीते जीत. परमारथ को पाइए मन ही के परतीत '


यानि सफलता और परमार्थ को पाने का मनसा  यानि  मन एक सशक्त साधन है. मन दिखलाई तो नहीं पड़ता पर हम सब के पास है, ऐसा अनुभव हम सभी को है. परमारथ का मतलब जीवन के परम  अर्थ ' परमानन्द' से है.  ऐसा आनंद जो स्थाई हो जो किसी भी बाहरी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति ,स्थान, या समय  पर निर्भर न करे  परमानन्द कहलाता  है.इस मन के द्वारा ही सुख और दुख का अनुभव किया जाता है. मन यदि अतिशय दुःख की स्थिति में है तो कह सकते है हम नरक में जी रहे है और यदि मन सुख का अनुभव कर रहा है तो स्वर्ग में.अब यदि ऐसे कोई लोक होते हो जहाँ स्वर्ग  या नरक अलग से होते हो तो वहां भी मन के बैगर वे सब  निरर्थक ही है.  अत: मन के बारे में जानना अति आवश्यक है.

भगवान कृष्ण गीता में मन की स्थिति इस प्रकार से बताते है :" इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर अर्थात शक्तिशाली कहते है और इन्द्रियों से भी पर  या शक्तिशाली मन है. मन से भी पर बुद्धि है और बुद्धि  से भी अत्यंत पर हमारी आत्मा है यानि हम खुद है. क्योंकि हम स्वयं  ही अपने स्थूल शरीर, मन और बुद्धि के मालिक है."(गीता अध्याय ३ श्लोक ४२)

उपरोक्त श्लोक के अनुसार मन की स्थिति शरीर और इन्द्रियों से ऊपर है. वास्तव में मन ही इन्द्रियों से सन्देश प्राप्त कर हमारा बाहरी जगत से  परिचय और   अनुभव कराता है और हमारी भावनाओ को भी  इन्द्रियों के माध्यम से प्रकट करता है.मन में असंख्य भाव समाहित है इसीलए इसको मानव को प्रकृति की ओर से दी गयी अनुपम भेट कह सकते है जो अति सूक्षम उपकरण (सोफ्ट वेयेर ) के रूप में है.

मन में ही भाव समुन्द्र लहरे मारता रहता है.जिसमे तरह तरह के भाव उदय होते रहते है और अस्त भी. यदि मन में आनंद और शांति के भाव उदय होते है तो हम आनंदित और शांत रहते  है और यदि दुःख और अशांति के तो हम तकलीफ में रहते है. अब चूँकि  बुद्धि की स्थिति मन के ऊपर है,जो प्रकृति द्वारा मानव को सोचने समझने की शक्ति के रूप में प्रदान की गयी है तो मन के भावो का नियंत्रण बुद्धि के द्वारा किया जा सकता है.परन्तु समस्या यह है कि मन अति चंचल है.इसको कैसे नियंत्रण में रखा जाये. इस बारे में भगवान कृष्ण गीता में कहते है "हे महाबाहु (अर्जुन) निस्संदेह मन अति चंचल है और कठिनता से वश में होने वाला  है. परन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है".(गीता अध्याय  ६ श्लोक स० ३५)

यानि बुद्धि की विचार शक्ति  के द्वारा  निरंतर सुविचारो के अभ्यास से इस चंचल मन में  भी सदभावो का उदय हो सकता है. वैराग्य का तात्पर्य यहाँ संसार से पलायन नहीं वरन उन कुविचारो को त्यागने से है जो मन को चंचल बनाते है.अत:   बुद्धि अर्थात विवेक और विचार की शक्ति के द्वारा यदि केवल आनंद  का ही चिंतन किया जाये और  कुविचारो का त्याग किया जाये  तो यह पक्का है कि मनरूपी भाव समुन्द्र में भी आनंद की लहरें अवश्य  उठने लगेंगी.

हमारे शास्त्रों में ईश्वर की धारणा "सत चित आनंद" के रूप में ही दरसाई गयी है. इसलिए आनंद का  चिंतन करते रहना ही हमारा वास्तविक धर्म और कर्तव्य  है. जब आनंद का चिंतन 'मनसा वाचा कर्मणा' के माध्यम से निरंतर   प्रकट होने लगेगा तो मन में भी  आनंद के हिलोरे स्थायी रूप से रह जाने वाली  है और हम मुक्ति का अनुभव कर सकते है. मुक्ति कहीं मरने के बाद मिलनेवाली है ऐसा केवल भ्रम मात्र ही है. अशांत मन से तो मुक्ति न इस जीवन में मिलनेवाली है और नाही मरने के बाद.  इन्द्रियों को ' गो ' भी  कहा गया है जिनको सही प्रकार से चराना मन का ही काम है . सैदेव शांत ओर आनंदमय मन ही गोपाल है जो इन्द्रियों को सही प्रकार से चरा सकता है. जिसका हमे निरंतर भजन करना चाहिए और ऐसा ही  मन है मुक्ति का द्वार.
तो  लगे रहो मुन्ना भाई   सत  के  चिंतन में .............."ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान"

Wednesday, February 9, 2011

जीवन की सफलता अपराधबोध से मुक्ति

जो मन में हैवही वाणी में  हो और वही कर्म में भी हो तो आचरण निष्कपट कहलाता है. सरल और निष्कपट होना ही सबसे कठिन बात है. आज के सबसे चर्चित आरूषी हत्याकांड में गाज़ियाबाद की कोर्ट ने डॉ.राजेश तलवार और उनकी पत्नी नूपुर तलवार को सी० बी० आई० की रिपोर्ट के आधार पर आरोपी माना है. हालाँकि उनके खिलाफ कोई भी सीधा सबूत नहीं है. परन्तु उनके आचरण के कारण ही वे संदेह और परिस्थितियो के आधार पर  आरोपी मान लिए गए है. इस सम्बन्ध में प्रत्येक व्यक्ति की अलग अलग धारणा हो सकती है. हम सभी ने आरूषी हत्याकांड के सम्बन्ध में शुरू से ही काफी  बार डॉ तलवार और उनकी पत्नी को मीडिया के माध्यम से देखा और जाना हैएक नवयुवक उत्सव ने तो उनको अपराधी मानते हुए और खुद ही यह समझते  हुए कि उनको न्यायालय और व्यवस्था दंड नहीं दे पाएंगे, डॉ. तलवार पर  कातिलाना हमला तक कर डाला.

एक घटना घटी जिसने आरूषी जैसी मासूम लड़की को लील लिया. इस घटना ने अपना प्रभाव सभी लोगो के मन पर अलग अलग प्रकार से  डाला है. इसका प्रभाव सबसे अधिक तो डॉ. तलवार और उनकी पत्नी के मन पर ही  हुआ होगा और होना चाहिए. क्योंकि आरूषी उनकी खुद की ही लड़की थी और घटनास्थल के सबसे नजदीक  वे ही मौजूद थे. यदि वे किसी भी कारण से अपराध में लिप्त थे तो यह वे अच्छी तरह से जानते हैं. यदि वे पूर्ण तरह निर्दोष हैं तो यह उनकी वाणी और कर्म से भी परिलक्षित होना चाहिए था. पहले जब उत्तर प्रदेश पुलिस ने उनको आरोपी मानकर कार्यवाही करनी शुरू की तो उन्होंने ही इस बात की  मांग की थी कि मामले कि जाँच सी० बी० आई०  करे. अब जब सी० बी० आई० ने जाँच करके उनको आरोपी मानते हुए न्यायालय में रिपोर्ट दी है और न्यायालय  ने भी उनको आरोपी मानकर सर्मन जारी किये है. ऐसी दशा में यदि कोई व्यक्ति निर्दोष है तो उसके मन में क्या घटता होगाउसकी वाणी कैसी होगी, उसका कर्म कैसा होगा यह प्रश्न विचारणीय है. जो लोग डॉ. तलवार और उनकी पत्नी के नजदीक है उनको भी सच्चाई की जरूर कुछ   कुछ जानकारी   अंदाजा होगायदि ऐसे लोग आगे आयें तो शायद इस  मामले पर पर्दा उठ सके.

कुछ भी हो सच्चाई तो सच्चाई ही रहेगी. यदि खुले तो भी और खुले तो भी. यदि डॉ. तलवार अपने मन को टटोले और सच्चाई का साथ दे तो अच्छा रहेगा और उनके मन का बोझ भी हल्का हो जायेगा.मनरूपी दर्पण बेशकीमती है इसी में ईश्वर के दर्शन हो सकते है और मानव पूर्ण आनंद को प्राप्त हो सकता है और इसी को मैला करके असीम दुःख और भटकन को भी प्राप्त हो सकता है. कहा भी गया है 'तेरा मन दर्पण कहलाये, भले बुरे सारे कर्मो को देखे और दिखाए'. कानून की प्रक्रिया  बहुत लम्बी हो सकती है और इस दौरान आरोपी जरूरी नहीं है कि जीवित ही रह पाए और उसके जीवित  रहने की स्थिति में उसके विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही तो समाप्त हो जाती है, परन्तु आरोपी जीते हुए ही  अपराध बोध से मुक्त हो सके यही उसके जीवन की सफलता हैमेरी तो यही कामना है की  डॉ. तलवार और उनकी पत्नी  निष्कपट आचरण करे और उन्हें उचित  न्याय मिले ताकि वे किसी भी अपराधबोध से मुक्त रह सके.

Tuesday, February 8, 2011

ब्लॉग जगत में मेरा पदार्पण

ब्लॉग जगत में मेरा पदार्पण प्रिय भाई खुशदीपजी की हार्दिक शुभ प्रेरणा  उत्साहवर्धन से हो रहा है. खुशदीपजी से आत्मीय सम्बन्ध मेरे लिए अनमोल है. दिसम्बर २०१० में मैं उनके घर अपनी पत्नी के साथ गया था. बातचीत के दौरान ही उन्होंने मुझे ब्लॉगिंग के बारे में बताया और ब्लॉग लिखने को प्रथम बार  प्रेरित किया. उनके ब्लॉग 'देशनामा' से भी मैं तभी परिचित हुआ. मैंने उनके देशनामा पर लिखे लेखो को पढ़ा और इसी माध्यम से मुझे अन्य ब्लॉग्स देखने  पढने का मौका मिला. कुछ ब्लोग्स पढ़कर तो मै अभिभूत हो गया और उन पर अपनी  टिपण्णी करे बगैर  न रह सका. डॉ दिव्याजी, डॉ श्याम गुप्तजी, प्रवीण पाण्डेयजी, वंदना गुप्ताजी, अंजना गुडिया जी, खुशदीप भाई आदि के ब्लोग्स पर जिज्ञासावश मैंने अपनी टिपण्णी करना भी शुरू कर दी. इसका एक कारण तो यह कि टिपण्णी करना आसान है दूसरा ये कि अपने मन के भावो और प्रतिक्रियाओं को भी इस प्रकार से  व्यक्त करना सरल है. चूँकि ब्लॉग जगत में मै बिलकुल नया व अनुभवहीन था इसीलिए ब्लॉग नहीं लिख पा रहा था. कुछ समय न मिल पाना भी मजबूरी रही. परन्तु हाल ही में खुशदीप भाई के साथ ४ फ़रवरी २०११  को एक ब्लोगर्स मिलन में जाना हुआ, जो आदरणीय समीरलालजी 'समीर'(ब्लॉग-उड़न तश्तरी) के कनाडा जाने की विदाई के फलस्वरूप खुशदीप भाई,  गीताश्रीजी व सर्जना शर्माजी ने आयोजित किया था. बहुत ही अच्छा लगा ब्लोग्स जगत के प्रबुद्ध ब्लोगर्स जनों से मिलकर जिनमे अविनाश वाचस्पतिजी, अजयकुमार झा जी, श्रीमती एवं श्री समीरलाल जी, शाहनवाज जी, महफूजजी, इरफ़ानजी, वंदनाजी, श्रीमती एवं श्री राजीव तनेजाजी, रविन्द्र प्रभातजी, गीताश्रीजी, सर्जना शर्माजी, शम्भूजी, वीरेंद्र संगरजी जैसी हस्तियों के दर्शन हुए और उनकी वार्तालाप सुनने का मौका भी मिला. खुशदीप भाई ने मेरा सभी से परिचय करवाया और बताया की मै मेरे 'मनसा वाचा कर्मणा' ब्लॉग के माध्यम से ब्लॉग जगत में प्रवेश करना चाह रहा हूँजिसमे मन, वाणी, कर्म और धर्म सम्बन्धी बातो पर विचार विमर्श होता रहेगा. आदरणीय समीरलालजी ने अंत में ब्लॉग जगत के बारे में अनेक महत्वपूर्ण विचारो से अवगत कराया और नए  ब्लोगर्स को बढ़ावा देने पर उन्होंने विशेष जोर दिया. चलते चलते उन्होंने मुझे अपनी हाल ही में प्रकाशित पुस्तक "देख लूँ तो चलूँ" कि प्रतिलिपि भी प्रदान की. इस पुस्तक के कुछ रोचक प्रसंग भाई खुशदीप जी ने अपने ब्लॉग "देशनामा" पर बहुत खूबसूरत ढंग से प्रस्तुत किये हैं और उपरोक्त  ब्लॉगर मिलन के बारे में भी  "देशनामा" पर सचित्र कमेंटरी प्रस्तुत की है. वंदना जी ने तो अपने ब्लॉग ज़िन्दगी...एक खामोश सफ़र पर काव्यात्मक रूप से इस ब्लॉगर मिलन का अतिसुन्दर वर्णन किया है.

यूँ  तो साइंस का विद्यार्थी होने के नाते शुरू में मै इंजिनियर बना, फिर इंजीनियरिंग के दौरान ही प्रथम बार स्वामी विवेकानंद जी को पढने का मौका मिला और फिर महात्मा गाँधी,  अरविंदो, राजा भर्तहरी, चैतन्य महाप्रभु, लोकमान्य तिलक, सुभाष चन्द्र बोश आदि के जीवन दर्शन को भी पढ़ा. फलस्वरूप अपने साइंस के ज्ञान और चिंतन के आधार पर ही नास्तिकता से आस्तिकता की ओर बढ़ता चला गया. इसी कारण भगवदगीता, उपनिषद, रामायण, भागवत आदि ग्रंथो को भी पढने ओर उनको वैज्ञानिक आधार  से जानने की चेष्टा में रत हूँ . मेरा मानना है कि इन ग्रंथो के सम्बन्ध  में हमे अधकचरे सुने सुनाये ज्ञान पर निर्भर न होकर स्वयं पढने ओर विवेकपूर्ण तरीके से जानने की कोशिश करनी चाहिए. भगवद्गीता तो तिलक, गांधीजी, अरविंदो, डॉ.राधाकृष्णन जैसी अनेक महान हस्तियों के जीवन का आधार ही रही है. विश्व कि अनेक भाषाओँ में इसका अनुवाद  हुआ है. फिर भी ऐसे महान ग्रन्थ को  हम केवल पूजा की वस्तु  या शपथ के लिए ही इस्तमाल करे तो उचित सा प्रतीत नहीं होता. मन, वाणी और कर्म भगवान की मनुष्य को दी गयी अनुपम देन है और भगवद्गीता में इन के बारे में वैज्ञानिक ढंग से प्रकाश डाला गया है. ब्लॉग जगत में शुभारम्भ मैं इसीलिए 'मनसा  वाचा  कर्मणा' के माध्यम से भाई खुशदीप जी को यह ब्लॉग समर्पित करते हुए कर रहा हूँ. सभी ब्लोगर्स जन से उनकी  सर्जनात्मक टिप्पणिओं के माध्यम से उत्साह वर्धन की आशा रखता हूँ.