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Monday, December 19, 2011

हनुमान लीला - भाग २

                                मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं  बुद्धिमतां वरिष्ठम्
                                वातात्मजं  वानरयूथमुख्यं   श्रीरामदूतं   शरणं   प्रपध्ये
        मैं मन के समान  शीघ्र गति युक्त , वायु के समान प्रबल वेग वाले, इन्द्रियों को जीत लेने वाले,
        बुद्धिमानों  में  श्रेष्ठ , वायुपुत्र, वानर समूह के अग्रणी ,श्री रामदूत की  शरण को  प्राप्त होता हूँ.  


मेरी पिछली पोस्ट 'हनुमान लीला -भाग १' पर सुधिजनों ने अपने  अपने अमूल्य विचार प्रस्तुत किये हैं.
'हनुमान' शब्द  की  व्याख्या  के सम्बन्ध में भी  सुधिजनों की सुन्दर जिज्ञासा व विचार  जानने को   मिले. 


केवल राम जी कहते हैं :-
"हनुमान" शब्द अपने आप में एक अलग व्याख्या की अपेक्षा रखता है .उस पर प्रकाश डालने की आवश्यकता है ..   


Dr M.N. Gairola जी का कहना हैं:-
Ego,is the biggest obstacle in realization..that way hanuman can be iterpreted as annihilation of Ego...... 

वंदना जी लिखती हैं :-
कहते है जिसने अपने मान का हनन कर दिया हो वो है हनुमान्…जो मान अपमान से परे हो गया हो और 
जिस हाल मे प्रभु खुश रहे और रखें उसी मे अपनी खुशी चाही हो वो ही कहलाता है हनुमान्…हनुमान होना 
आसान कहाँ है ? 

Sunil Kumar  जी लिखते हैं :-
श्री हनुमान निश्छल ह्रदय और अनन्य भक्ति का एक अद्भुत संगम हैं.उन पर गहरा विश्वास अकल्पनीय 
बाधाओं से मुक्ति दिला सकता है.

veerubhai  जी कहते हैं :-
हनू -मान का मतलब ही उच्चतर मान है .मन की उद्दात्त अवस्था है 

हनुमान तत्व की स्थापना के लिए कपि मन को बार बार सत्संग की जरूरत पड़ती है 


हनुमान शब्द की व्याख्या यद्धपि आसान नही है. फिर भी इस  पोस्ट मे 'हनुमान' जी को समझने का  प्रयास
करते हुए आईये चंचल  कपि मन और बुद्धि को केंद्रित कर  डॉ. नूतन जी के अनुसार कुछ समय सत्संग का ही 
आश्रय लेते  हैं.

हनुमान शब्द  में 'ह' हरि  यानी विष्णु स्वरुप है,  जो पालन कर्ता के रूप में वायु द्वारा शरीर,मन  
और बुद्धि का पोषण करता है.कलेशों का हरण करता है.

हनुमान शब्द  में 'नु' अक्षर  में 'उ' कार है, जो शिव स्वरुप है. शिवतत्व कल्याणकारक है ,
अधम वासनाओं का संहार कर्ता है.शरीर ,मन और बुद्धि को निर्मलता प्रदान करता है.

हनुमान शब्द  में 'मान' प्रजापति ब्रह्मा स्वरुप ही  है. जो सुन्दर स्वास्थ्य,सद्  भाव और 
सद् विचारों का सर्जन कर्ता है.

निष्कर्ष हुआ कि  ह-अ,   न्- उ , म्-त  यानि हनुमान में  अ   उ   म्  अर्थात परम अक्षर 'ऊँ'  विराजमान है  जो 
एकतत्व  परब्रहम  परमात्मा का प्रतीक है. जन्म मृत्यु तथा सांसारिक वासनाओं की मूलभूत माया का विनाश 
ब्रह्मोपासना के बिना संभव ही नही है.हनुमान का आश्रय लेने से मन की गति स्थिर होती है ,जिससे शरीर में 
स्थित पाँचो प्राण  (प्राण , अपांन, उदान, व्यान ,समान) वशीभूत हो जाते हैं और साधक ब्रह्मानंद रुपी अजर 
प्याला पीने में सक्षम हो जाता है.  

पिछली  पोस्ट में भी हमने  जाना था कि हनुमान जी  वास्तव में 'जप यज्ञ'  व 'प्राणायाम' का  साक्षात ज्वलंत  स्वरुप ही हैं. आयुर्वेद मत के अनुसार शरीर में तीन तत्व  वात .पित्त  व कफ यदि सम अवस्था में रहें तो शरीर निरोग रहता है.इन तीनों मे वात  यानी वायु तत्व अति सूक्ष्म और प्रबल है.जीवधारियों का सम्पूर्ण पोषण -क्रम वायु द्वारा ही होता है. आयुर्वेदानुसार शरीर में दश वायु (१) प्राण (२) अपान (३) व्यान (४) उदान (५) समान (६) देवदत्त (७) कूर्म (८) कृकल (९) धनंजय  और (१०) नाग  का संचरण होना माना गया है.शरीर मे इन दशों वायुओं के कार्य भिन्न भिन्न हैं. हनुमान जी पवन पुत्र हैं . वायु से उनका घनिष्ठ सम्बन्ध है.शास्त्रों में उनको ग्यारहवें रूद्र का अवतार भी कहा गया है.एकादश रूद्र  वास्तव में  आत्मा सहित उपरोक्त दश वायु ही माने गए हैं.अत : हनुमान   आत्मा यानि प्रधान वायु के अधिष्ठाता  हैं.

वात  या  वायु  के अधिष्ठाता होने के कारण हनुमान जी की आराधना से सम्पूर्ण वात व्याधियों का नाश होता है.
प्रत्येक दोष वायु के माध्यम से ही उत्पन्न और विस्तार पाता है.यदि शरीर में वायु शुद्ध रूप में स्थित है तो शरीर निरोग रहता है. कर्मों,भावों और विचारों की अशुद्धि से भी  वायु दोष उत्पन्न होता है.वायु दोष को  पूर्व जन्म व इस जन्म में किये गए पापों के रूप में भी जाना जा सकता है.अत: असाध्य से असाध्य रोगी और जीवन से हताश व्यक्तियों के लिए  भी हनुमान जी की आराधना  फलदाई है. गोस्वामी तुलसीदास की भुजा में जब वायु  प्रकोप के कारण  असाध्य पीड़ा हो रही थी , उस समय उन्होंने 'हनुमान बाहुक' की रचना करके उसके  चमत्कारी प्रभाव का  प्रत्यक्ष अनुभव किया.

वास्तव में चाहे 'हनुमान चालीसा' हो या 'हनुमान बाहुक' या 'बजरंग बाण' ,इनमें से प्रत्येक रचना का मन लगाकर 
पाठ करने से अति उच्च प्रकार का प्राणायाम होता है.प्राण वायु को सकारात्मक बल की प्राप्ति होती है.पापों का शमन होता  है.इन रचनाओं के प्रत्येक शब्द में आध्यात्मिक गूढ़ अर्थ भी छिपे हैं.जिनका ज्ञान जैसे जैसे होने लगता है तो हम आत्म ज्ञान की प्राप्ति की ओर भी स्वत: उन्मुख होते जाते हैं. 

हनुमान जी सर्वथा मानरहित हैं, वे  अपमान या सम्मान  से परे हैं. 'मैं'  यानि  'ego'  या अहं के तीन स्वरुप हैं .शुद्ध स्वरुप में  मै 'अहं ब्रह्मास्मि'  सत् चित आनंद  स्वरुप ,निराकार परब्रह्म  राम  हैं.साधारण अवस्था में जीव को 'अहं ब्रह्मास्मि' को समझना  व अपने इस शुद्ध स्वरुप तक पहुंचना आसान नही.परन्तु, जीव जब दास्य भाव ग्रहण कर सब कुछ राम को सौंप केवल राम के  कार्य यानि आनंद का संचार और विस्तार करने के लिए पूर्ण रूप से भक्ति,जपयज्ञ , प्राणायाम  व कर्मयोग द्वारा नियोजित हो राम के अर्पित हो जाता है तो उसके अंत: करण में   'मैं' हनुमान भाव  ग्रहण करने लगता है. तब वह  भी मान सम्मान से परे होता जाता है और 'ऊँ  जय जगदीश हरे  स्वामी जय जगदीश हरे ...तन मन धन  सब है तेरा स्वामी सब कुछ है तेरा, तेरा तुझ को अर्पण क्या लागे मेरा ..'  के शुद्ध  और सच्चे  भाव उसके  हृदय में  उदय हो  मानो वह हनुमान ही होता  जाता है.

लेकिन जब सांसारिकता में लिप्त हो  'मैं' या अहं को   तरह तरह का  आकार दिया  जाता  हैं तो हमारे अंदर यही मैं  'अहंकार' रुपी रावण हो  विस्तार पाने लगता है. जिसके दसों सिर भी   हो जाते हैं.  धन का , रूप का , विद्या का , यश का  आदि आदि. यह रावण या अहंकार तरह तरह के दुर्गुण रुपी राक्षसों को साथ ले हमारे स्वयं के अंत;करण में ही लंका नगरी का अधिपति हो  सर्वत्र आतंक मचाने में लग जाता है.अत:  अहंकार रुपी रावण की इस लंका पुरी को ख़ाक करने के लिए और परम भक्ति स्वरुप सीता का पता लगाने के लिए 'मैं' को हनुमान का आश्रय ग्रहण करने  की परम आवश्यकता है.अहंकार की लंका नगरी को  शमन कर ज्ञान का प्रकाश करने का प्रतीक  यह हनुमान रुपी 'मैं ' ही हैं . 

कबीर दास जी की वाणी में कहें तो
                                  सर राखे सर जात है,सर काटे सर होत 
                                  जैसे बाती दीप की,जले  उजाला   होत 

अर्थात  सर या अहंकार के रखने से हमारा  मान सम्मान सब चला जाता, परन्तु अहंकार का शमन करते रहने  
से हमें स्वत; ही मान सम्मान मिलता  है. जैसे दीप की बाती  जलने पर उजाला करती है,वैसे ही अहंकार का शमन 
करने वाले व्यक्ति के भीतर और बाहर  ज्ञान का उजाला होने लगता है.

इस पोस्ट में हनुमान शब्द  की व्याख्या सुधिजनों की जिज्ञासा और रूचि को ध्यान में रखते हुए ही मैंने आप सभी के सत्संग के माध्यम से करने की  कोशिश की है. हनुमान लीला अत्यंत कल्याणकारी और अपरम्पार है.  अगली पोस्ट में हनुमान लीला का चिंतन आगे बढ़ाने का  प्रयास प्रभु की कृपा व  सुधिजनों  की दुआ और आशीर्वाद से  पुनःकरूँगा. आशा है आप सब  इस पोस्ट पर भी  अपने अपने अमूल्य विचार व अनुभव प्रकट करने में कोई कमी नही रखेंगें और  अपने सुविचारों से मेरा सैदेव मार्ग दर्शन करते रहेंगें.

Friday, November 25, 2011

हनुमान लीला - भाग १

                        अतुलितबलधामं     हेमशैलाभदेहं
                                           दनुजवनकृशानुं    ज्ञानिनामग्रगण्यम 
                         सकलगुणनिधानं  वानरणामधीशं
                                           रघुपतिप्रियभक्तं   वातजातं  नमामि  


अतुलित बल के धाम , सोने के पर्वत के समांन  कान्तियुक्त  शरीर वाले ,दैत्यरूपी  वन को आग 
लगा देने वाले (अधम वासनाओं का  भस्म करने वाले), ज्ञानियों में सर्वप्रथम,सम्पूर्ण गुणों के भण्डार 
वानरों के स्वामी ,श्री रघुनाथ जी के प्रिय भक्त  पवनपुत्र श्री हनुमान जी को मैं प्रणाम करता हूँ.


मेरी पोस्ट 'रामजन्म -आध्यात्मिक चिंतन-१' से 'रामजन्म - आध्यात्मिक चिंतन-४''सीता जन्म
-आध्यात्मिक चिंतन १' से 'सीता जन्म -आध्यात्मिक चिंतन -५' तक मैंने 'राम', 'दशरथ','कौसल्या'
'सतयुग, त्रेता ,द्वापर  व कलयुग''उपवास', 'अयोध्या', 'अवधपुरी', 'सरयू', 'सीता' , 'पार्वती', 'शिव',
'अर्थार्थी, जिज्ञासु ,आर्त व ज्ञानी भक्त' , 'जप यज्ञ' आदि  का  चिंतन आध्यात्मिक रूप से  करने की
कोशिश की  है. इस प्रकार के चिंतन से हमें यह लाभ है  कि हम पौराणिक  या ऐतिहासिक वाद  विवादों
से परे हटकर अपना ध्यान केवल  'सार तत्व' पर केंद्रित करने में समर्थ होने लगते हैं. ज्यूँ ज्यूँ  उचित
साधना का अवलंबन कर सार्थक चिंतन मनन से 'सार तत्व' हमारे अंत;करण में घटित होने लगता है
तो हम अखण्ड आनंद की स्थिति की और अग्रसर होते  जाते  हैं.


मेरी पिछली पोस्ट 'सीता जन्म -आध्यात्मिक चिंतन-५' में  'जप यज्ञ' पर कुछ प्रकाश डाला गया था.
इस पोस्ट में मैं हनुमान जी के स्वरुप का आध्यात्मिक चिंतन करने का प्रयास करूँगा. हनुमान जी  
वास्तव में 'जप यज्ञ'  व 'प्राणायाम' का साक्षात ज्वलंत  स्वरुप ही हैं.साधारण अवस्था में  हमारे  मन, 
बुद्धि,प्राण अर्थात हमारा अंत:करण  अति चंचल हैं जिसको कि  प्रतीक रूप मे हम वानर या कपि भी 
कह सकते हैं. लेकिन जब हम 'जप यज्ञ'  व  'प्राणायाम ' का सहारा लेते हैं तो  प्राण सबल होने लगता है. 
कल्पना कीजिये जब अंत:करण प्राणायाम व 'जप यज्ञ' से पूर्ण संपन्न हो जाये  तो उसका  स्वरुप   
क्या होगा .शास्त्रों में 'हनुमान जी' की कल्पना  मेरी समझ में इसी  प्रकार के अंत:करण से ही  की गई  है.
'जप यज्ञ' या 'प्राणायाम' बिना वायु के संभव नही है.इसीलिए हनुमान जी को 'पवन पुत्र', 'वात जातं'  
कहा गया है.  'जप यज्ञ' व 'प्राणायाम' से पूर्ण संपन्न  अंत: करण को  'वानराणामधीशं'  नाम से भी 
पुकारा गया  है.क्योंकि ऐसा अंत:करण ही समस्त अंत;करणों का स्वामी हो सकता है जो  प्रचंड शक्ति 
पुंज व  अग्निस्वरूप होने के कारण 'हेमशैलाभदेहं' के रूप में भी ध्याया जा सकता है.जिसमें समस्त 
विकारों,अधम वासनाओं को भस्म करने की  स्वाभाविक सामर्थ्य   है. ऐसा अंत:करण सकल गुण निधान,
ज्ञानियों में सर्व प्रथम,राम जी का प्रिय  भक्त भी होना ही चाहिये.इस प्रकार से अंत; करण की सर्वोच्च  
अवस्था का हनुमान जी के रूप में ध्यान कर,  हम 'जप यज्ञ' व 'प्राणायाम' का अवलंबन करें तो ही 
हनुमान जी की वास्तविक पूजा  व आराधना  होगी.


हम देखते हैं कि जगह जगह हनुमान जी के मंदिर बने हुए हैं. मंगलवार को हनुमानजी पर प्रसाद चढाने 
वालों की  लंबी भीड़ भी लगी होती है.हम  अधिकतर अंधानुकरण करते हुए  हनुमान जी की मूर्ति के 
मुख पर प्रसाद लगा, या हनुमान जी पर सिन्दूर आदि का लेप कर अपनी इतिश्री समझ लेते हैं. क्या 
इस प्रकार के कर्म काण्ड से  ही हमारा अंत:करण सबल हो पायेगा? यदि हनुमान जी की भक्ति का हमें 
वास्तविक लाभ लेना है तो निश्चित ही  हमें जप यज्ञ  व प्राणायाम से  अपने अंत:करण को सबल करना 
होगा. तभी  हनुमान जी प्रसन्न होकर हमें राम जी से मिलवा देंगें यानि 'सत्-चित -आनंद' स्वरुप का 
साक्षात्कार करवा देंगें. क्योंकि  वे ही तो रामदूत  भी हैं.


कहते हैं हनुमान जी सुग्रीव के सेनापति थे. सुग्रीव वह है जिसकी ग्रीवा सुन्दर हो अर्थात  जो अच्छा गायन 
करे. जो सांसारिक विषयों का गायन करे वह अच्छा गायन  नही कहलाता. लेकिन जो केवल  परम  तत्व  
का या परमात्मा का ही गायन करे वही अच्छा गायन करने वाला सुग्रीव कहलाता है. गायन  में   'प्राणायाम' 
और 'जप यज्ञ'  की प्रमुख भूमिका  हैं .ऐसा गायन जब  संगीत का  सहारा लेता है तो  'सुग्रीव' बन पाता है. 
इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि यदि हम अच्छा गायन करना चाहें , या सुग्रीव बनना चाहें  तो  बिना 
हनुमान जी को  अपना सेनापति नियुक्त करे  ऐसा नही कर सकते हैं .सुग्रीव की मित्रता राम जी से कराने 
में  हनुमान जी ही सहायक होते हैं. 


हनुमान तत्व को सही प्रकार से समझ कर ध्याया जाये तो हमारे  बल, बुद्धि ,इच्छा शक्ति निश्चित रूप से 
ही विकसित होंगें और शुद्ध आत्म ज्ञान की प्राप्ति हमें अवश्य हो जायेगी.फिर तो सब वन ,वनस्पति,पर्वत 
आदि हमें पवित्र ही जान पड़ेंगें. इसीलिए कबीरदास जी भी अपनी वाणी में कहते हैं:-


                             सब बन तो तुलसी भये, परबत  सालिगराम
                             
                             सब  नदियें  गंगा  भई, जाना  आतम   राम  


आप सुधि जनों  ने मेरी पिछली सभी पोस्टों पर अपने अमूल्य विचार व टिपण्णी  प्रस्तुत कर हर पोस्ट 
को भरपूर  सार्थकता प्रदान की है. यहाँ तक कि मेरी  पिछली  पोस्ट 'सीता जन्म- आध्यात्मिक चिंतन-५'
को तो  अब तक की सबसे अधिक लोकप्रिय  पोस्ट बना दिया है. इसके लिए मैं आप सभी का हृदय से 
आभारी हूँ.मुझे आप सभी से बहुत कुछ सीखने को  मिल रहा है.विशेषकर डॉ. नूतन गैरोला जी, 
'Human' जी, वंदना जी,हरकीरत 'हीर' जी, शिल्पा जी , अशोक व्यास जी  ने अपने अमूल्य विचारों 
से मेरे प्रयास का मूल्य कई गुणा बढ़ा दिया है. 
  
मैं आप सब से विनम्र क्षमाप्रार्थी  हूँ कि आपके स्नेहिल आग्रह के बाबजूद यह पोस्ट मैं कुछ देरी से 
प्रकाशित कर पाया हूँ. मेरी यह कोशिश रहेगी कि  प्रत्येक  माह  मैं एक पोस्ट प्रकाशित कर दूँ.
क्योंकि व्यस्तता के कारण मैं अपनी पोस्ट जल्दी प्रकाशित नही कर पाता हूँ.इसके अतिरिक्त  
सभी सुधिजन  भी  जल्दी  जल्दी पोस्ट पर  नही आ पाते हैं.और यदि जल्दी जल्दी पोस्ट प्रकाशित 
हो तो पिछली पोस्टें उनके  पढ़ने से रह जाती हैं.मेरा उद्देश्य ब्लॉग जगत के अधिक से अधिक जिज्ञासू 
और प्रभु प्रेमी सुधिजनों से  विचार विमर्श और सार्थक सत्संग  करना है.इसलिये मैं सभी से यह भी 
विनम्र निवेदन करना चाहूँगा कि जब भी समय मिले  आप  मेरी पिछली पोस्टों का भी अवलोकन जरूर 
करें व  अपने अमूल्य  विचार   प्रस्तुत करने की कृपा करें.


यूँ तो  हनुमान लीला अपरम्पार है.फिर भी अगली पोस्ट में  हनुमान लीला का कुछ और भी चिंतन करने 
का प्रयत्न करूँगा .आशा है मेरी इस पोस्ट पर आप सभी प्रेमी सुधिजन  अपने अमूल्य विचार और अनुभव 
भरपूर प्रस्तुत  कर मुझे  अवश्य  ही अनुग्रहित करेंगें.




    

Thursday, October 20, 2011

सीता जन्म -आध्यात्मिक चिंतन -५

आनंद की परिकाष्ठा परमानन्द है.  हर  मनुष्य  में   चिंतन   मनन करने की  स्वाभाविक
प्रक्रिया होती  है.परन्तु , परमानन्द का चिंतन करना ही  वास्तविक सार्थक चिंतन है.परमानन्द
परमात्मा का स्वाभाविक रूप है ,जिससे  जुडना  'योग' कहलाता  है.  जब मनुष्य परमानन्द
के विषय में  चिंतन  मनन करता है और मन बुद्धि के द्वारा  उससे जुड़ने का  यत्न भी करता है
तो वह 'मुनि' कहलाये जाने योग्य है.

श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ६, श्लोक संख्या ३  में वर्णित है :-

                 आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं  कर्म  कारणमुच्यते 

योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मननशील पुरुष  अर्थात मुनि के लिए कर्म करना ही 
हेतू  या कारण है.

योग में तब  तक आरूढ़ नहीं हुआ जा सकता जब तक कि  परमानन्द का मनन न हो और
उसे पाने की इच्छा न हो .इसी इच्छा के उदय होने  को  हृदय में 'सीता जन्म' होना माना गया है.
योग के लिए केवल इच्छा ही नहीं कर्म भी आवश्यक है. कर्म का अर्थ यहाँ केवल ऐसे  सद् कर्म हैं
जिनके करने से  'परमानन्द' से जुड़ा जा सके.इन कर्मों के विपरीत जो भी कर्म हैं वे बंधनकारक है.
वह  सद् कर्म जो केवल परमानन्द या सत्-चित -आनंद परमात्मा को पाने की ही अभिलाषा
से किये  जाये तो  श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार 'यज्ञ' कहलाते  है.परमात्मा का 'नाम जप' करना
ऐसा ही एक सद् कर्म व यज्ञ है.

जप यज्ञ को सभी प्रकार के  यज्ञ कर्मों में सर्वोत्तम माना गया है.श्रीमद्भगवद्गीता के 'विभूति योग'
अध्याय १० में   यज्ञों में 'जप यज्ञ' को  परमात्मा की साक्षात विभूति ही बतलाया गया है.
इसलिये जप यज्ञ के विषय में थोडा जानना आवश्यक हो जाता है.

जैसे गेहूँ अनाज आदि  शरीर का अन्न हैं,  सद् भाव  मन का अन्न है और सद् विचार बुद्धि  काअन्न है,
इसी प्रकार 'जप करना' प्राण और अंत:करण का अन्न है.जप  करने से प्राणायाम होता है,प्राण लय को
धारण कर सबल होने लगता  है,जिससे चंचल मन और  बुद्धि भी  स्थिर  होते हैं.जप करना सहज और
सरल है.किसी भी अवस्था,काल ,परिस्थिति में जप किया जा सकता है.जप यज्ञ में परमात्मा का नाम
या मन्त्र जिसका जप किया जाता है , बहुत महत्वपूर्ण होता है. जिसको समझ कर  सच्चे  हृदय से जप
किये जाने से ही प्रभाव होता है.  मन्त्र या नाम में जिस जिस  प्रकार के भाव समाविष्ट होते हैं ,वे हृदय
में उदय होकर प्राण और मन का लय कराते जाते हैं. यदि नाम में हम कुभाव समाविष्ट कर  स्वार्थ के
लिए दूसरों का अहित  सोच केवल  दिखावे के लिए ही  जप करें तो 'मुहँ मे राम बगल में छुरी' वाली
कहावत चित्रार्थ होगी और बजाय योग के हम पतन की और उन्मुख हो जायेंगें.

गोस्वामी तुलसीदास जी  परमात्मा के  नाम जप के लिए यहाँ तक लिखते है कि

                चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ , कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ 

चारों युगों में और चारो वेदों में नाम के  जप का प्रभाव  है ,परन्तु ,कलियुग में तो विशेष प्रभाव है.
नाम जप के  अतिरिक्त कलियुग में  अन्य कोई सक्षम  साधन नहीं है .चारों युग हमारे ही हृदय में
घटित होते रहते हैं.जब हृदय में कलियुग का प्रभाव होता है तो हम तमोगुण अर्थात आलस्य ,प्रमाद
हिंसा ,अज्ञान आदि  की वृतियों  से आवर्त रहते हैं.ऐसे में परमात्मा से योग के लिए नाम जप सबसे
अधिक प्रभावकारी साधन  है. युगों  के  आध्यात्मिक  निरूपण  के  सम्बन्ध  में  मेरी  पोस्ट
'राम जन्म आध्यात्मिक चिंतन-२' को भी सुधिजनों द्वारा  पढा जा सकता है.

गोस्वामी तुलसीदास जी श्रीरामचरितमानस में यह भी लिखते हैं कि

                  देखिअहिं  रूप  नाम   आधीना ,रूप  ग्यान  नहिं  नाम  बिहीना 
' रूप नाम के अधीन देखा जाता है,परन्तु  नाम के बिना रूप का ज्ञान नहीं हो सकता है.'

जैसे 'हाथी' कहते ही हाथी के रूप का भी मन में आभास होने लगता है ऐसे ही परमात्मा के नाम जप
करने से हृदय में परमात्मा के रूप यानि  'परमानन्द' का आभास  व अनुभव होने लगता है.नाम जप
चाहे निर्गुण निराकार परमात्मा का किया जाये या सगुण साकार परमात्मा का,दोनों का फल यह
'परमानन्द' का अनुभव ही है.

सुधिजनों ने पंचतंत्र  की कहानियों के विषय में सुना व पढा अवश्य होगा. कहते हैं इन कहानियों की
रचना अल्प समय में ही मंद बुद्धि  राजकुमारों को नीति ,आचार व व्यवहार  सिखाने के लिए की गई थी.
कहानियों के अधिकतर पात्र पशु पक्षी हैं ,जिनसे कहानियाँ इतनी रोचक व सरल हो गईं हैं कि उनका सार
सहज ही हृदयंगम हो जाता है.इसी प्रकार से   गूढ़ आध्यात्मिक तथ्य श्रीरामचरितमानस व  अन्य पुराणों
आदि में वर्णित कहानी व  लीला  के माध्यम  से आसानी से  ग्रहणीय हो जाते हैं.जरुरत है तो बस
इन कहानी और 'लीला' को रूचि लेकर पढ़ने की और सकारात्मक सूक्ष्म अवलोकन करके समझने की.

नाम जप के महत्व के सम्बन्ध में मैं यहाँ पर 'सीता लीला ' का एक संक्षिप्त वर्णन करना चाहूँगा.
जब हनुमान जी सीता जी की खोज करके राम जी के पास लौटे  तो राम जी ने उनसे  पूछा कि हनुमान
जी यह बतलाइये कि  लंका में राक्षस राक्षसनियों  के बीच घिरी सीता जी अपने प्राणों की रक्षा किस
प्रकार से कर रहीं हैं.तब इस प्रश्न का उत्तर हनुमान जी इस प्रकार से देते हैं (श्रीरामचरितमानस,
सुन्दरकाण्ड, दोहा संख्या ३०):-

                   नाम  पाहरू   दिवस  निसि,  ध्यान   तुम्हार   कपाट
                   लोचन  निज  पद    जंत्रित , जाहिं  प्राण   केहिं  बाट  

(१)सीताजी रात दिन नाम जप करती रहती हैं जो पहरेदार की तरह उनके प्राणों की देखभाल करता है.

(२)वे नाम जप के साथ साथ आपका ध्यान भी करती रहती  हैं.जिससे उनके प्राणों की सुरक्षा और
भी बढ़ जाती है. जैसे कि किसी घर की सुरक्षा के लिए एक पहरेदार की नियुक्ति करके, घर के दरवाजे
यानि कपाट भी बंद कर दिए जाएँ.क्यूंकि बिना कपाट बंद  किये  केवल पहरेदार से ही  घर की सुरक्षा
अधूरी रह सकती है.

(३)यही नहीं  वे नेत्रों को भी अपने चरणों में निरंतर लगाये रखतीं हैं.'चरण' जो चलने  का प्रतीक है,  में
नेत्रों को लगाने से अभिप्राय  है  कि वे  अपने किये गए व किये जा रहे कर्मों पर भी अपनी नजर रखती हैं.
यह ऐसे ही  है जैसे  कि घर में पहरेदार की नियुक्ति  के अतिरिक्त  घर के कपाट बंद करके उनमें
ताला भी लगा दिया जाये.अब बतलाइये उनके प्राण (बिना उनकी इच्छा के) किस प्रकार  से निकल पायेंगें.

इस प्रकार से भीषण विपरीत परिस्तिथियों में भी नाम जप के सहारे  सुरक्षित रह कर योग में किस
प्रकार से आरुढ हुआ जा सकता है,यह आध्यात्मिक तथ्य  उपरोक्त 'सीता लीला' के प्रकरण से सहज
ग्रहण हो  जाता है.  जप,ध्यान और निरंतर अपने कर्मों का अवलोकन करने से प्राण इतना सबल हो
जाता है कि हमारी बिना इच्छा के वह  शरीर से नहीं निकल सकता.अर्थात जप यज्ञ से  इच्छा मृत्यु भी
हुआ जा सकता है.

अंत में कबीरदास जी की निम्न वाणी  से मैं  इस पोस्ट का समापन करता हूँ.

                      खोजी  हुआ   शब्द   का,  धन्य  सन्त  जन  सोय 
                      कह कबीर गहि शब्द को, कबहूँ  न  जाये   बिगोय. 

जो  शब्द  (यानि परमात्मा के नाम) की  खोज करता है,वह  सन्त जन  धन्य हैं .कबीरदास जी कहते हैं कि
शब्द को ग्रहण करके वह कभी भी पतित  नहीं हो सकता.

सभी सुधि जनों का मैं हृदय से आभारी हूँ जिन्होंने मेरा  निरंतर उत्साहवर्धन किया है . आप सभी  की
सद्प्रेरणा  से ही  मैं  यह पोस्ट भी लिख पाया हूँ. आशा है  आपकी अमूल्य टिप्पणियों के माध्यम से
मेरा  निरंतर मार्गदर्शन होता रहेगा. जप यज्ञ  के बारे में आप सभी सुधिजनों के अपने अपने विचार व
अनुभव जानकर मुझे बहुत खुशी होगी.

मेरी सभी सुधिजनों को   आनेवाले त्यौहारों  धनतेरस, दीपावली,गोवर्धन व भैय्या दूज की  बहुत
बहुत  हार्दिक  शुभकामनाएँ व बधाई.

                  

Monday, September 12, 2011

सीता जन्म -आध्यात्मिक चिंतन -४

मन में श्रद्धा के  'जोश' और बुद्धि में विश्वास के 'होश' से 'भवानी और शिव' की कृपा होने लगती है.
भक्त वही  है जो परम  आनंद से ,परम शान्ति और संतुष्टि  से मन और बुद्धि के माध्यम से किसी
भी  प्रकार से हृदय में स्थित परमात्मा से  जुड जाये. जो नहीं जुड पाता वह 'विभक्त' है, खंडित है,
अशांत  और अस्थिर  है. श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ४   श्लोक ३९   में वर्णित है

                           श्रद्धावाँल्लभते  ज्ञानं    तत्पर:  संयतेन्द्रिय
                           ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिमचिरेणाधिगच्छ्ती 

अर्थात जो श्रद्धावान है, तत्पर है ,साधनपरायण है और इन्द्रियों को संयत करता है,उसी को परमात्मा या
परमानन्द का ज्ञान भी प्राप्त होता है,जिसको प्राप्त कर  वह अति शीघ्र परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है.
और जो विवेकहीन ,श्रद्धारहित व संशय युक्त है उनके लिए श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित किया गया है

                           अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च  संशयात्मा   विनश्यति 
                           नायं लोकोSस्ति  न परो न सुखं संशयात्मन :

विवेकहीन , श्रद्धा रहित और  संशय युक्त मनुष्य परमार्थ को नहीं पा सकता . वह  अवश्य ही  नष्ट
भ्रष्ट हो जाता है. ऐसे संशय युक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है  और न ही सुख है.


यूँ तो परमात्मा  और परमानन्द से अनेक प्रकार से जुड़ा जा सकता है,परन्तु ,शास्त्रों में मुख्य रूप
से चार प्रकार के भक्त बताये गए हैं जो मन और बुद्धि में श्रद्धा और विश्वास उपार्जित करते हुए
परमात्मा  से जुडने का प्रयत्न करते हैं. श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं:-

                          राम भगत जग चारि प्रकारा , सुकृति चारिउ अनघ उदारा.
                          चहू चतुर कहू नाम अधारा ,  ज्ञानी प्रभुहि बिसेष  पिआरा 

जग में राम के भक्त चार प्रकार के होते हैं.चारों ही पुण्यात्मा,पापरहित और उदार हैं.चारों ही चतुर हैं
जिनको परमात्मा के नाम जप का  आधार है.इन चारों प्रकार के भक्तों में 'ज्ञानी' भक्त  प्रभु को
विशेष प्यारा है. श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ७  श्लोक १६  में इन चार प्रकार के भक्तों को निम्न
प्रकार से वर्णित किया गया है:-

                         चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन
                         आर्तो  जिज्ञासुरर्थार्थी  ज्ञानी  च  भरतर्षभ

हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! उत्तम कर्म करनेवाले मुनष्य मुझे चार प्रकार से भजते हैं.
अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी.

आईये, उपरोक्त चार प्रकार के भक्तों को कुछ और विस्तार से जानने का प्रयत्न करते है,

१)अर्थार्थी भक्त:  ऐसा भक्त जिसको परमात्मा में यह श्रद्धा और विश्वास है कि परमात्मा ही  उसकी
                           हर  मनोकामना पूर्ण करने में समर्थ है.यद्धपि वह भी सद् कर्म करता रहता है,परन्तु
                           भक्ति करते हुए  उसका उद्देश्य अपने अर्थ यानि कामना की पूर्ति की तरफ रहता है.
                           इसीलिए यह भक्त अर्थार्थी कहलाता है. यानि मतलब सिद्ध करने के लिए भक्ति.
                           अर्थार्थी भक्ति, भक्ति की प्रारंभिक अवस्था मानी जा सकती है,जिसमे भक्त का
                           परमात्मा के प्रति ज्ञान अति अल्प   है,परन्तु,उसको परमात्मा में श्रद्धा  है.

२) जिज्ञासु भक्त: ऐसा भक्त जिसकी जब मनोकामनाएं पूर्ण होने लगतीं हैं,या किसी भी  अन्य कारण
                           से जब उसके हृदय में परमात्मा को जानने की यह तीव्र अभिलाषा व उत्कंठा जाग्रत व                   
                           बलवती हो जाती है कि जो परमात्मा समस्त मनोकामनाएं पूर्ण करता है,जिसने यह
                           चराचर जगत बनाया है,वह कौन है, कैसा है, उसका स्वरुप क्या है,तभी वह सत्संग,
                           सद् शास्त्रों ,संतजनों का आश्रय ग्रहण कर परमात्मा को जानने का सुप्रयत्न करता  है.

३) आर्त भक्त :    ऐसा भक्त जिसने जीवन में बहुत दुःख और कष्ट पाए हैं.संकटों में घिरा होने के कारण
                          अति कातर,दीन और आर्त होकर भगवान से जुड जाता है.उसे पूरी श्रद्धा और विश्वास है
                          कि परमात्मा ही उसके कष्टों का निवारण कर सकते है. उसका विश्वास  और सभी ओर से
                          उठ चुका होता है.जैसे पौराणिक  महाभारत की कथानुसार चीर-हरण के समय द्रौपदी
                          ने आर्त होकर  'श्रीकृष्ण' को पुकारा था.

४) ज्ञानी भक्त:  ऐसा भक्त जिसे परमात्मा के सम्बन्ध  में  सम्पूर्ण तत्व-बोध हो जाता है,सम्यक ज्ञान
                        हो जाता है,उसकी कोई जिज्ञासा  बाकी नहीं रहती.जिसकी अपनी कोई भी मनोकामना
                        नहीं रहती.जो परमात्मा को  आनंद और  प्रेम स्वरुप जानकर नित्ययुक्त हो  प्रेमानन्द
                        में ही मग्न रहता है,पूर्ण  तृप्त  और परम शान्ति को पा चुका होता है.जिसका अंत:करण
                        इतना सबल और सुस्थिर हो जाता है कि सुख - दुःख उसके  लिए कोई माने नहीं रखते.

चारों प्रकार के भक्तों में,ज्ञानी भक्त के विषय में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ७ के श्लोक १७ व १८  में
कहा गया है:-
                       तेषां   ज्ञानी  नित्ययुक्त   एकभक्तिर्विशिश्यते
                       प्रियो  हि  ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं  स   च   मम  प्रिय:
                       उदारा:  सर्व  एवैते  ज्ञानी    त्वात्मैव  मे   मतम् 
                       आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् 

उनमें ( चारों प्रकार के भक्तों में ) मुझे में एकीभाव से स्थित अनन्य प्रेमभक्ति वाला ज्ञानी भक्त अति
उत्तम है,  क्यूंकि मुझको तत्व से जाननेवाले ज्ञानी को मैं अत्यंत प्रिय हूँ  और  वह ज्ञानी मुझे अत्यंत
प्रिय है. ये (चारों) भक्त  उदार हैं, परन्तु ज्ञानी तो साक्षात मेरा स्वरुप ही  है,ऐसा मेरा मत है. क्यूंकि ज्ञानी
की गति केवल मेरे में ही है,मेरे में ही वह मन ,प्राण और बुद्धि को लगाये रखता है.उत्तम गतिस्वरूप
ज्ञानी भक्त मुझमें ही अच्छी प्रकार से स्थित है,यानि वह भी आनंदस्वरूप ही है.

जब हम बिना मन और बुद्धि को परमात्मा में लगाए ,बिना  श्रद्धा और विश्वास के परमात्मा की
भक्ति का ढोंग करते हैं,ढोंगी का भेष धारण करते हैं  तो श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार मिथ्याचारी
कहलाते  है.आज समाज में अधिकतर मिथ्याचारियों  का ही बोलबाला है. जिससे आम बुद्धिजीवी
का विश्वास संतों से ही नहीं ,परमात्मा तक से  भी  उठता  चला जा रहा  है.बुद्धिमान ढोंगी के   भेष
और सच्ची  भक्ति का अंतर समझ जाते है,कहा गया है ;

                      भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित होय 
                      भक्ति जु न्यारी भेष  से , यह  जानै  सब   कोय 

मिथ्याचार को छोड़ कर यदि  हम उपरोक्त   चार प्रकार के भक्तों के बारे में सही प्रकार से जाने तो
हम यह तय कर सकते हैं कि  अभी हमारी भक्ति किस स्तर की है.भक्त बनने से पहले हमें हर हालत
में सुकृत तो करने ही होंगें. बिना सुकृत किये हम किसी प्रकार से भी भक्त कहलाये जाने के अधिकारी
नहीं हो सकते हैं.

यदि हम अभी अर्थार्थी या आर्त भक्त की श्रेणी में  हैं तो   परमात्मा को जानने की तीव्र उत्कंठा जगाकर
जिज्ञासु बनने का प्रयत्न भी  कर सकते हैं.जिज्ञासु भक्त ही एक न एक दिन राम कृपा से ज्ञानी भक्त
हो जायेगा इस विश्वास से जीवन में आगे बढ़ने का प्रयत्न करें  तो ही जीवन का  वास्तविक सदुपयोग है
संत कबीरदास जी  कहते हैं:-

                    भक्ति बीज पलटे  नहीं ,जो जुग जाये अनन्त 
                    ऊँच नीच  घर अवतरै,   होय   संत   का   संत 

अर्थात की हुई भक्ति का बीज कभी भी निष्फल नहीं होता. चाहे अनन्त युग बीत जाएँ ,भक्तिमान जीव
ऊँच  नीच माने गए चाहे किसी भी वर्ण या जाति में उत्पन्न हो,प्रारब्ध वश चाहे किसी भी योनि में उसे जाना
पड़े पर अंततः वह संत ही रहता है.  उसका अंत हमेशा अच्छा ही होता है.अर्थात उसकी परम गति हो
उसे परमानन्द की प्राप्ति होकर रहती है.

सीता जन्म आध्यात्मिक चिंतन की पिछली तीनों पोस्टों पर आप सुधिजनों द्वारा की गई टिप्पणियों
से हृदय में इस आशा और विश्वास का सुखद  संचार होता है कि हम सभी मिथ्याचार को छोड़कर  अपने
हृदय में भक्ति  जिज्ञासा   की जोत  प्रज्जवलित करने में जरूर जरूर सफल होंगें.

यह पोस्ट भी कुछ  लंबी हो गई है.इसलिये इस बार बस यहीं समाप्त करता हूँ.आप सुधिजनों ने मेरी
इस लंबी पोस्ट को पढ़ने का जो कष्ट उठाया है  ,इसके लिए मैं आपका हृदय से आभारी हूँ.मैं आप सभी
से यह भी अनुरोध करूँगा कि विषय को भली प्रकार से समझने के लिए आप समय मिलने पर  मेरी
पिछली पोस्टों का अवलोकन भी जरूर करते रहें.

अगली पोस्ट में, यदि हो सका तो नाम जप और 'सीता लीला'  पर  कुछ और आध्यात्मिक चिंतन
करने की कोशिश करूँगा. आशा है आप सब सुधिजन अपने सुविचारों को प्रकट कर   मेरा उत्साह
वर्धन करते रहेंगें.
        

Saturday, August 20, 2011

सीता जन्म -आध्यात्मिक चिंतन -३

सीता पवित्र पावन है, मनोहारी,सुकोमल  और अत्यंत सुन्दर है, दुर्लभ भक्ति स्वरूपा है, समस्त
चाहतों की जननी है. सीता का नाम जन जन में प्रचलित है, जो राम से पहले ही  बहुत आदर  व
सम्मान के  साथ लिया जाता  है.बहुत प्राचीन समय से  अनेक  घरों में  बच्चियों का नाम सीता,
जानकी या वैदेही के  नाम पर  रखा जाता रहा है. अत: यह अफ़सोस करना कि लोग अपनी बच्चियों
का नाम सीता के नाम पर नहीं रखना चाहते नितांत निराधार है. सीता ,राधा, मीरा   आदि का नाम
स्मरण करते ही हृदय में भक्ति का उदय होता है. बहरहाल किसी भी प्रकार के विवाद को अलग
रखते हुए इस पोस्ट में भी मेरा  उद्देश्य 'सीता जन्म' के  आध्यात्मिक चिंतन को आगे बढ़ाना  है.

मेरी पिछली पोस्ट 'सीता जन्म -आध्यात्मिक चिंतन -२' में  हमने यह जाना था  कि

'सीता जी यानि भक्ति  ही जीव जो परमात्मा का  अंश है को अंशी अर्थात परमात्मा से जोड़ने में 
समर्थ हैं वे हृदय में आनंद का 'उदभव' करके उसकी 'स्थिति' को बनाये रखतीं हैं.हृदय की समस्त 
नकारात्मकता का 'संहार'  करके  कलेशों  का हरण कर लेतीं  हैं और सब प्रकार से जीव का कल्याण 
ही  करती रहतीं  हैं.


सीता जन्म अर्थात भक्ति का उदय हृदय में कैसे हो , आईये  इस बारे में थोडा मनन करने  का प्रयास करते हैं.
गोस्वामी तुलसीदास जी श्री रामचरितमानस में लिखते हैं :-


             बिनु बिस्वास भगति नहि, तेहि बिनु द्रवहिं न रामु 
             राम  कृपा  बिनु  सपनेहुँ , जीव  न  लेह   विश्रामु 


अर्थात बिना विश्वास  के भक्ति नहीं होती, भक्ति के बिना श्री राम जी पिघलते नहीं यानि 'राम कृपा'
नहीं होती और श्री राम जी की कृपा के बिना जीव स्वप्न में भी शान्ति नहीं पा सकता.


'सत्-चित-आनंद' या राम  में विश्वास होना ,अर्थात हृदय मे ऐसी पक्की धारणा का होना कि जीवन में असली 
आनंद स्थाई चेतनायुक्त आनंद(सत्-चित-आनंद) ही   है,जिसको पाना संभव है और जिसका  निवास
भी  हमारे हृदय में ही है,अत्यंत आवश्यक है.


इसके लिए गोस्वामी तुलसीदास जी श्रीरामचरितमानस के प्रारम्भ में ही यह प्रार्थना करते हैं :-
   
             भवानी  शंकरौ   वन्दे             श्रद्धा विश्वास रुपिनौ 

             याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धा: स्वान्त:स्थमीश्वरम  


मैं भवानी जी और शंकर जी की वंदना करता हूँ . (क्यूंकि) भवानी जी 'श्रृद्धा' और शंकर जी 'विश्वास' का ही 
स्वरुप हैं. श्रद्धा- विश्वास के बिना सिद्ध जन भी अपने अंत:करण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते. 


मुझे बहुत अफ़सोस होता है जब ब्लॉग जगत में मैं यह पाता हूँ कि कुछ लोग 'शिव-पार्वती' अथवा 'शिवलिंग'
के बारे में  बिना जाने ही दुष्प्रचार और मखौल  करने में लगे हुए  हैं.उनकी क्षुद्र सोच पर मुझे हँसी ही आती है.
हमारे यहाँ अध्यात्म में 'प्रतीकों' का सहारा लिया जाता है,जैसा कि आज के विज्ञान में भी किया जाता है,
जैसे पानी को 'H2O' क्यूँ दर्शाते हैं और  H2O  का मतलब पानी में  दो भाग हाइड्रोजन व एक भाग
ओक्सीजन का होना है,यह एक वैज्ञानिक अच्छी प्रकार से जानता है, परन्तु ,एक साधारण आदमी 
को बिना जाने न तो H2O का मतलब समझ आयेगा न ही वह यह विश्वास करेगा कि पानी दो गैसों
हाइड्रोजन व ओक्सिजन से मिलकर बना है. इसके लिए सर्वप्रथम  तो उसे 'विज्ञान' पर श्रद्धा रखनी
होगी. श्रद्धा के कारण ही वह विज्ञान को समझने का जब प्रयत्न करेगा तभी उसे कुछ  कुछ
समझ उत्पन्न हो सकेगी. जैसे जैसे उसका ज्ञान और अनुभव बढ़ता जायेगा, तैसे तैसे उसे यह
'विश्वास' भी उत्पन्न होता जायेगा कि  हाँ पानी दो गैसों से मिलकर ही बना है.प्रतीक गुढ़ रहस्यों को
आसानी से समझने के माध्यम हैं. भवानी 'श्रद्धा' का प्रतीक हैं और शंकर जी 'विश्वास' का.

'श्रद्धा'  यानि भवानी जी शक्ति है जिसके द्वारा   जीव सत्संग का अनुसरण कर  निष्ठापूर्वक प्रयास
करता है  और सद्ज्ञान प्राप्ति का अधिकारी हो  पाता है. ज्ञान की  प्राप्ति पर  विश्वास होता  है.
यह विश्वास यानि 'शिव' ही  कल्याणस्वरुप  है जो मन के सभी  संशयों के विष को पी डालता है ,
जिससे जीव एकनिष्ठ हो परमात्मा का ध्यान कर पाता है.और परमात्मा के ध्यान से जैसे जैसे हृदय
में शान्ति और आनंद का अनुभव होने  लगता है, तैसे तैसे शान्ति और आनंद की  प्राप्ति की चाहत
व  तडफ भी  हृदय में नितप्रति बलबती होकर हृदय में  'भक्ति' का उदभव करा देती  है.
'भक्ति' के लिए राम कृपा और सत्संग  की आवश्यकता है.सत्संग और 'राम कृपा' के सम्बन्ध
में मैंने अपनी पोस्ट 'बिनु सत्संग बिबेक न होई' में  लिखा है.सुधिजन चाहें तो मेरी इस पोस्ट का
भी अवलोकन कर सकते हैं,जो कि मेरी लोकप्रिय पोस्टों में से एक है.

भक्ति के बारे में गोस्वामीजी  लिखतें हैं :-
             
                 भक्ति सुतंत्र सकल गुन  खानी ,बिनु सत्संग न पावहि प्रानी
                 पुण्य पुंज बिनु मिलहि न संता, सतसंगति संसृति कर अंता


भक्ति स्वतंत्र है और सभी सुखों की खान है . परन्तु ,सत्संग  के बिना प्राणी इसे पा नही सकता.
पुण्य समूह के बिना संत नहीं मिलते और सत्संगति से ही जन्म-मृत्यु  रूप 'संसृति' का अंत हो 
पाता है.

क्यूंकि सत्संगति से ही  'श्रद्धा' , 'विश्वास' के बारे में  सही सही जानकारी होती है.वर्ना  अज्ञान
पर आधारित अंध श्रद्धा तो  जीव के पतन का कारण भी हो सकती है.यदि चाहत 'राम' के बजाय संसार
की होगी तो वह भक्ति की जगह वासना बन  'कारण शरीर' का निर्माण करेगी ,जिसके फलस्वरूप जैसा
कि मैंने अपनी पिछली पोस्ट 'सीता जन्म  आध्यात्मिक चिंतन -१' में बताया था ,जन्म मरण (संसृति)
के  बंधन का निर्माण होगा.

श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १७ (श्रद्धा त्रय विभाग योग) में श्रद्धा के 'सत', 'रज' और 'तम' गुणी स्वरूपों
की विवेचना की गई है.सुधिजन चाहें तो 'श्रद्धा' के बारे में और अधिक जानने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता
का अध्ययन कर सकते हैं. श्रद्धा पूर्वक मनन करने से ही   गुढ़  रहस्य प्रकट हो पाते हैं.
वर्ना लोग बिना पढ़े और जाने ही 'अश्रद्धा' के कारण  अपनी भिन्न भिन्न विपरीत धारणा
भी बना लेते हैं.'श्रद्धा' और 'विश्वास' राम भक्ति रुपी मणि को पाने के सुन्दर साधन हैं.

राम भक्ति एक अक्षय मणि के समान है .यह जिसके हृदय में बसती  है उसे स्वप्न में भी लेशमात्र
दुःख नहीं होता. जगत में वे ही मनुष्य चतुर शिरोमणि हैं जो इस भक्ति रुपी मणि के लिए भलीभाँती
यत्न करते हैं.तुलसीदास जी इस बारे में लिखते हैं:-

                राम भगति मनि  उर बस जाके, दुःख लवलेस  न सपनेहुँ ताके 
                चतुर शिरोमनि  तेइ जग माहीं ,जे मनि  लागि सुजतन कराहीं 


इस  पोस्ट  को विस्तार  भय से अब यहीं समाप्त करता हूँ. अगली पोस्ट में चार प्रकार के भक्तों और
'सीता लीला' के ऊपर कुछ और चिंतन का प्रयास करेंगें.

मुझे यह जानकर अत्यंत हर्ष होता है कि सीता जन्म आध्यात्मिक चिंतन  की मेरी पिछली दोनों
पोस्ट सुधीजनों द्वारा पसंद की गयीं हैं. उनकी सुन्दर सारगर्भित टिप्पणियों  से मैं निहाल हो जाता
हूँ.मैं सभी सुधिजनों का इसके लिए हृदय से आभारी हूँ. मैं सभी पाठकों से अनुरोध करूँगा कि मेरी इस
पोस्ट पर भी अपने अमूल्य विचार अवश्य प्रस्तुत करें.

Wednesday, July 20, 2011

सीता जन्म -आध्यात्मिक चिंतन -२

किसी भी  चाहत की उत्पत्ति आनंद प्राप्ति के लिए   होती है. यह अलग बात है कि उस  चाहत की
पूर्ति पर आनंद मिले या न मिले. अथवा जो आनंद मिले वह स्थाई न होकर अस्थाई ही रहे.
जैसे जैसे हमारी सोच व अनुभव परिपक्व होते जाते  है ,हम अस्थाई आनंद की अपेक्षा स्थाई
आनंद की चाहत को अधिक महत्व देने लगते हैं.वास्तव में  चाहत  माया  का ही रूप है.जीव और
ईश्वर के बीच ईश्वर को पाने की चाहत अर्थात 'श्री ' (सीता) जी किस प्रकार से शोभा पाती हैं इसका
वर्णन  करते  हुए गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं :

            उभय बीच श्री सोहइ  कैसी , ब्रह्म जीव बिच माया जैसी.

जैसा कि मैंने अपनी पिछली  पोस्ट में कहा कि 'सीता जन्म' हृदय स्थली में 'सत्-चित-आनंद' को पाने
की  सच्ची चाहत का उदय होना  है.अर्थात ऐसी चाहत जो हमे 'स्थाई चेतन आनंद' की प्राप्ति करा सके,
जिस  आनंद को   हमारे शास्त्रों में 'सत्-चित-आनंद' या परमात्मा के नाम से पुकारा गया है.
'सीतारूपी' चाहत अत्यंत दुर्लभ है जो आत्मज्ञान  के अनुसंधान व खोज  का ही  परिणाम है,सीताजी
भक्ति स्वरूपा   हैं, जो   समस्त चाहतों की 'जननी' , अत्यंत सुन्दर , श्रेय व कल्याण करनेवाली है.
सीता जी की सुंदरता का निरूपण करते हुए गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते हैं :-

             सुंदरता  कहुं सुन्दर करई, छबि गृहं दीपसिखा जनु  बरई
             सब उपमा कबि  रहे जुठारी , केहिं  पटतरौं  बिदेहकुमारी 


सीताजी की शोभा, सुंदरता को भी सुन्दर करनेवाली है.वह ऐसी मालूम होती हैं मानो सुन्दरता रुपी घर 
में दीपक की लौं जल रही हो.सारी उपमाओं को तो कवियों ने झूंठा कर रखा है. मैं जनक नंदनी श्री 
सीताजी की किससे  उपमा दूँ .

कहते हैं सीताजी का अवतरण तब हुआ था जब  वैदेह राजा जनक ने प्रजा के हितार्थ वृष्टि कराने
हेतू भूमि में हल चलाया था और हल की नोंक भूमि में गड़े एक घड़े से टकराई थी.उस घड़े में  से ही एक
अति सुन्दर सुकोमल कन्या प्रकट हुई,जिसका नाम हल के नुकीले भाग के नाम पर "सीता" रखा गया.
जनक जी ने इस कन्या को अपनी पुत्री के रूप में अपनाया इसलिये उनका नाम "जानकी" या "वैदेही"
भी कहलाया. राजा जनक पूर्ण आत्मज्ञानी हैं  जिन्हें अपनी देह में भी किंचित मात्र आसक्ति नहीं है .
इसीलये उन्हें 'वैदेह' कहते हैं. वे अपने  आत्मस्वरूप में सदा स्थित हो आत्म तृप्त रहते हैं.उन्हें कर्म
करने की कोई आवश्यकता नहीं है तो भी लोकहितार्थ  वृष्टि हेतू पृथ्वी पर हल चलाने का 'कर्म योग'
करते हैं. जिसके फलस्वरूप 'सीता'  यानि भक्ति का प्रादुर्भाव होता है.वृष्टि का अभिप्राय यहाँ
आनंद से ही है.

उपरोक्त कहानी से यह समझ में आता है कि भले ही व्यक्ति पूर्ण आत्मज्ञानी भी हो जाये,परन्तु
जनकल्याण के लिए उसे 'जमीन में हल चलाने ' अर्थात निरंतर 'कर्मयोग'  की भी आवश्यकता
है, जिससे   'भक्तिरुपी' सीताजी   का उदय हो  पाए और  चहुँ और आनंद की वृष्टि  हो सके. हल की
नोंक उस आत्मज्ञानी व्यक्ति की प्रखर बुद्धि का प्रतीक है जिससे वह परम चाहत  'सीता' जी की खोज
का कार्य संपन्न कर् पाता है.

सीता जी  'सत्-चित-आनंद' परमात्मा यानि 'राम' का ही  वरण करतीं  हैं. राम को 'राम को पाने की
चाहत' यानि सीताजी  अत्यंत प्रिय है. इसलिये इनको 'रामवल्लभाम'  भी कहते हैं.सीताजी की वंदना
करते हुए  श्रीरामचरितमानस के शुरू में ही  गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं :-

                     उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं          क्लेशहारिणीम
                     सर्वश्रेयस्करीम सीतां नतोSहं      रामवल्लभाम

जो उत्पत्ति ,स्थिति और संहार करनेवाली हैं, कलेशों का हरण करनेवाली  हैं, सब प्रकार से कल्याण 
करनेवाली हैं,श्री राम जी की प्रियतमा हैं,उन सीता जी को मैं नमस्कार करता हूँ.


सीता जी यानि भक्ति  ही जीव जो परमात्मा का  अंश है को अंशी अर्थात परमात्मा से जोड़ने में समर्थ हैं
वे हृदय में आनंद का 'उदभव' करके उसकी 'स्थिति' को बनाये रखतीं हैं.हृदय की समस्त नकारात्मकता
का 'संहार'  करके  कलेशों  का हरण कर लेतीं  हैं और सब प्रकार से जीव का कल्याण ही  करती रहतीं  हैं.

.ऐसी 'भक्ति' माता  सीता जी का  मैं हृदय से  नमन करता हूँ .

                 सीय राममय सब जगजानी, करउ प्रनाम जोरि जुग पानी 


अगली पोस्ट में हम 'सीताजी' व उनकी लीला के  आध्यात्मिक चिंतन करने का एक और प्रयास करेंगें.

मैं सभी सुधिजनों का हृदय से आभारी हूँ जिन्होंने मेरी पिछली पोस्ट 'सीता जन्म -आध्यात्मिक चिंतन-१'
पर अपनी बहुमूल्य टिप्पणियाँ देकर मेरा उत्साहवर्धन किया है . जिससे यह पोस्ट मेरी लोकप्रिय पोस्टों
(Popular Posts) में अति शीघ्र ही चौथे स्थान पर आ गई है.

मैं आशा करता हूँ कि इस पोस्ट पर भी सुधिजनों का प्यार और कृपा  मुझ पर बनी रहेगी.




Wednesday, June 29, 2011

सीता जन्म -आध्यात्मिक चिंतन -१

चाहत या आरजू का जीवन में बहुत महत्व है.हमारी  अनेक प्रकार की चाहतें हो सकतीं हैं, जो  जीवन
के स्वरुप को बदलने में सक्षम हैं.  वासनारूप होकर जब    चाहत   अंत:करण  में वास  करने लगती
है तो  हमारे 'कारण शरीर' का भी  निर्माण  करती रहती है.

'कारण शरीर' हमारी स्वयं की वासनाओं से निर्मित है, जिसके कारण  मृत्यु  उपरांत हमें नवीन स्थूल
व सूक्ष्म  शरीरों  की प्राप्ति होती है.यदि वासनाएं सतो गुणी हैं अर्थात विवेक,ज्ञान  और प्रकाश की
ओर उन्मुख हैं  तो 'देव योनि ' की प्राप्ति हो सकती है.  यदि  रजो गुणी अर्थात अत्यंत क्रियाशीलता,
चंचलता  और  महत्वकांक्षा से ग्रस्त हैं तो  साधारण 'मनुष्य योनि'. की और यदि  तमो गुणी अर्थात
अज्ञान,प्रमाद हिंसा आदि से  ग्रस्त  हैं  तो 'निम्न' पशु,पक्षी, कीट-पतंग आदि की 'योनि'प्राप्त हो
सकती है. इस प्रकार विभिन्न प्रकार की वासनाओं से विभिन्न प्रकार की योनि प्राप्त हो
सकती है. जो हमारे शास्त्रों  अनुसार ८४ लाख बतलाई गई हैं.

उदहारण स्वरुप यदि किसी की चाहत यह हो कि जिससे उसको कुछ मिलता है ,उसको  वह स्वामी  
मानने लगे और  उसकी चापलूसी करे,कुत्ते  की  तरहं उसके आगे पीछे दुम हिलाए.  जिससे उसको
नफरत हो या जो उसे पसंद  न आये,  उसपर वह जोर का   गुस्सा करे ,कुत्ते की तरह भौंके  और जब
यह चाहत'उसकी अन्य चाहतों से सर्वोपरि होकर  उसके अंत:करण में प्रविष्ट  हो वासना रूप में  उसके
 'कारण शरीर' का निर्माण करे ,तो   उस व्यक्ति को अपनी ऐसी चाहत की पूर्ति  के लिए 'कुत्ता योनि'
में भी जन्म लेना पड़ सकता है. इसी  प्रकार जो बात-बिना बात अपनी अपनी कहता रहें यानि बस
टर्र टर्र ही   करे ,मेंडक की तरह कुलांचें भी  भरे तो वह  'मेंडक' बन सकता है..क्योंकि ऐसी वासनायें
अज्ञान ,प्रमाद से ग्रस्त होने के कारण 'तमो गुणी'  ही  है  जो पशु योनि की कारक है.

चाहत यदि सांसारिक है तो  संसार में रमण होगा. पर  चाहत परमात्मा को पाने की हो  तो परमात्मा से
मिलन होगा.इसलिये अपनी चाहतों के प्रति हमें अत्यंत जागरूक व सावधान रहना चाहिये.किसी भी
चाहत को विचार द्वारा पोषित किया जा सकता है.विचार द्वारा ही चाहत का शमन भी किया जा सकता है.
यदि चाहत सच्ची और प्रगाढ़ हो तो अवश्य पूरी  होती है.गोस्वामी  तुलसीदास जी रामचरितमानस में
सच्ची चाहत और स्नेह के बारे में लिखते हैं:-

                          जेहि  कें जेहि पर सत्य सनेहू, सो तेहि  मिलइ  न कछु संदेहू 


वास्तव में 'सीता जी' का स्वरुप रामचरितमानस व अन्य ग्रंथों में प्रभु श्री राम की 'भक्ति' स्वरूपा
माना गया है.जो  राम अर्थात 'सत्-चित-आनंद' को पाने की सर्वोतम  और अति उत्कृष्ट  चाहत ही है.
ऐसी चाहत इस पृथ्वीलोक में  अति दुर्लभ और अनमोल है, जो  मनुष्य को सभी वासनाओं  से मुक्त
कर उसके 'कारण शरीर' का अंत  कर सत्-चित-आनंद' परमात्मा से मिलन कराने में समर्थ है.

भगवान कृष्ण  श्रीमद्भगवद्गीता  के अध्याय १२ (भक्ति योग ) के   श्लोक ९  में कहते हैं
                   
                               अथ चित्तं  समाधातुं  न शक्रोषी मयि स्थिरम
                              अभ्यासयोगेन ततो  मामिच्छाप्तुम धनञ्जय


यदि तू अपने मन को मुझमें अचल स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं है तो हे अर्जुन! तू अभ्यास रूप 
योग के द्वारा मुझको प्राप्त होने के लिए 'इच्छा' कर.


परमात्मा को पाने की 'इच्छा'  अन्य सभी  इच्छाओं का अपने में  समन्वय और शांत करने  में समर्थ है,
जो गंगा की तरह अन्ततः परमात्मा रुपी समुन्द्र में मिल जाती  है.इसीलिए अभ्यासयोग (परमात्मा
का मनन,जप,ध्यान आदि) बिना परमात्मा की प्राप्ति की सच्ची इच्छा के अधूरा ही है.परमात्मा को पाने  के
लिए अभ्यासयोग के साथ साथ  बुद्धि के सद् विचार द्वारा ऐसी चाहत का ही निरंतर पोषण करते
रहना चाहिये.

परमात्मा की सच्ची  चाहत, प्रेम  या  भक्ति पृथ्वी पुत्री 'सीता' जी ही  है.  जिन्हें  'आत्मज्ञानी' विदेह
जनक जी ने भी अपनी पुत्री के रूप में अपनाया ,जो  करुणा निधान  परमात्मा को अत्यंत प्रिय है.ऐसी
भक्ति स्वरूपा जानकी  जी जगत की जननी हैं ,क्यूंकि सभी चाहतों का  इनमें विलय हो जाता है. उन्हीं के
चरण कमलों  को मनाते हुए    गोस्वामी तुलसीदास जी निवेदन करते  हैं  कि वे (जानकी जी)  उन्हें
निर्मल सद् बुद्धि प्रदान करें , जो  प्रभु  'सत्-चित-आनंद' की  प्राप्ति कराने में सहायक  हो.

                               जनकसुता जग जननि  जानकी,अतिशय प्रिय करुनानिधान की 
                               ताके जुग पद  कमल मनावऊँ,  जासु कृपा  निरमल  मति पावउँ 


हृदय स्थली  में आत्मज्ञान के साथ साथ परमात्मा को पाने की सच्ची चाहत का उदय हो , यही
वास्तविक रूप से 'सीता जन्म' है.ऐसी  सच्ची चाहत ही निर्मल मन व बुद्धि प्रदान कर सकती है,
जिसके बिना परमात्मा को पाना असम्भव है.

'सीता' जी सर्व श्रेय  व  कल्याण  करने वालीं  हैं. अगली पोस्ट में 'सीता' जी के स्वरुप का हम और भी
मनन व चिंतन करेंगें.             

Saturday, May 21, 2011

रामजन्म - आध्यात्मिक चिंतन -४




यह मेरे लिए अति आनंद की बात है कि प्रिय सुधिजनों  ने  'रामजन्म -आध्यात्मिक चिंतन' पर
प्रकाशित मेरी पिछली तीनों पोस्टों  का अपनी आनंदपूर्ण टिप्पणियों से भरपूर स्वागत किया है.
देवेन्द्र भाई का कहना है कि 'संगम सरयू स्नान कर धवल व पवित्र हो जाता है. 
भाई अरविन्द मिश्रा जी कहते हैं कि 'अब सरयू भी सहज ध्यानाकर्षण की अधिकारणी हो
जाती है.'  हालाँकि मेरी  पिछली पोस्ट 'रामजन्म-आध्यात्मिक चिंतन -३' में सरयू  का निरूपण
आत्म-ज्ञान रुपी सरिता से किया  गया है, फिर भी रूचि और प्रसंग को देखते हुए इस पोस्ट में
हम 'सरयू' जी  पर विचार करने की और कोशिश करते हैं.

आईये,  मेरी  पिछली पोस्ट 'रामजन्म- आध्यात्मिक चिंतन-३'  में वर्णित  रामचरित्र मानस की
निम्न पंक्तियों का स्मरण करते हुए आगे बढते हैं

             "बंदउ  अवधपुरी  अति   पावनि,  सरजू  सरि  कलि   कलुष  नसावनि"

अवधपुरी की वंदना  ऐसी अति पवित्र पुरी के रूप में की गई है जहाँ 'सरयू' जैसी सरिता बह रही
है जो कलियुग की कलुषता का नाश करनेवाली है .रामचरितमानस में सरयू के बारे में यह भी
लिखा गया है कि

                       उत्तर दिसि सरजू बह निर्मल जल गंभीर
                       बाँधे  घाट मनोहर   स्वल्प  पंक  नहिं तीर

अर्थात अवधपुरी की उत्तर दिशा में सरयू बह रही हैं जिसका जल निर्मल और गहरा है.
मनोहर घाट बंधे हुए है, किनारे पर जरा भी कीचड़ नहीं है.

यह देखा गया है कि जब कोई नदी या सरिता जो  निरंतर प्रवाहित होती है, जिसका जल
शुद्ध ,  पेय  व कल्याणकारी होता है, जिसपर स्नान आदि करने के लिए सुन्दर घाट निर्मित
किये जा सकते हैं  व जिसके किनारे कीचड़ आदि से   मुक्त होते हैं  तो उस नदी  के
आस पास संपन्न नगर व पुरी भी बस जाते हैं.

अवधपुरी हृदय में स्थित  एक ऐसी ही संपन्न पुरी है जहाँ समस्त दैवीय संपदा जैसे 'अभय
यानि मृत्यु आदि समस्त भयों का अभाव, अंत:करण की निर्मलता,  उत्तम कर्मों का आचरण ,
क्रोध का सर्वथा अभाव, दया, अहिंसा आदि सद्गुणों का निरंतर विकास होता रहता  हैं. यह सब
विकास इसीलिए संभव होता है क्यूंकि अवधपुरी की उत्तर दिशा में 'आत्म ज्ञान' रुपी सरयू
नदी निरंतर बहती रहती है. उत्तर दिशा 'परिपक्वता'  का प्रतीक है. यानि 'आत्मज्ञान' केवल
कोरा  या थोथा नहीं  बल्कि  गहन अनुसंधान और अनुभव  पर आधारित है जिसमें स्वल्प भी
अज्ञान रुपी कीचड़ का लेश मात्र  नहीं है.

अपनी आत्मा का ज्ञान हमें भय मुक्त करने में सर्वथा समर्थ है. जब  मैं अपने शरीर को केवल
वस्त्र मानकर स्वयं को परमात्मा का अंश 'सत्-चित-आनंद' मानता हूँ जो नित्य,अजर,अमर
अवध,आनंदस्वरूप है  और निरंतर यही 'command'  अपने मस्तिष्क रूपी कंप्यूटर को देता रहता
हूँ, , तो मेरे हृदय में नकारात्मकता का शमन हो सकारात्मकता व आनंद का संचार होने
लगता है.जैसा कि भगवद्गीता (अध्याय २ श्लोक २२ ) में भी  निम्न प्रकार से वर्णित है

                              वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
                              नवानि गृह्णाति नरोSपराणी
                              तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
                              न्यन्यानि संयाति नवानि देही
अर्थात जैसे हम  शरीर के पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करते हैं,वैसे
ही हमारी आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नए शरीर को प्राप्त होता है.

यह देह भी  हमेशा एकसा नहीं रहता.पहले बचपन, बचपन की मृत्यु हो जवानी , जवानी की 
मृत्यु हो बुढ़ापा,और फिर देह  ही अंततः मृत्यु को प्राप्त हो जाता है.
वास्तव में आत्मा के तीन शरीर हैं (१) स्थूल या  पंच भूत से निर्मित  भौतिक शरीर जिसकी
मृत्यु होती है और यही नाशको प्राप्त होता है (२) सूक्ष्म शरीर जो मन,बुद्धि,अहंकार से
निर्मित है (३) कारण शरीर जो सकाम  कर्मों के परिणाम स्वरुप संचित वासनाओं के रूप में
निर्मित  है.

स्थूल शरीर  के विनाश होने पर 'सूक्ष्म' और 'कारण' शरीर हमारी आत्मा के साथ ही  नवीन
स्थूल शरीर की प्राप्ति की  ओर अग्रसर हो जाते हैं ,जो हमारी संचित वासनाओं अर्थात
' कारण शरीर' के अनुरूप ही  मिला करता है.'तमोगुणी' वासनाओं  से निम्न योनि(कीट,पतंग,
पशु,पक्षी आदि) ,'रजोगुणी' वासनाओं से साधारण मनुष्य योनि और 'सतोगुणी' वासनाओं से
उच्च मनुष्य योनि(संत,महापुरुष आदि) जिसे देव योनि भी कहते हैं प्राप्त होती हैं.इन वासनाओं
का   सर्जन  और विसर्जन  हम अपने जीवन काल में अपने कर्म,भाव और विचारों के द्वारा
करते रहते हैं.जिस जिस प्रकार की वासनाएं अर्जित होती जातीं हैं,वैसा वैसा  ही  'कारण शरीर '
का  निर्माण भी  होता  जाता है. 'कारण शरीर ' के आधार पर ही फिर  'सूक्ष्म' शरीर  व 'स्थूल'
शरीर का निर्माण होता है . परन्तु, हमारा  मरण  कभी नहीं होता. जन्म से पहले  और मृत्यु के
पश्चात भी  हम आत्मा रूप में हमेशा विद्यमान रहते है.

यदि  अपने जीवन काल में ही मैं यह आत्मज्ञान   प्राप्त करलूँ कि न मैं स्थूल शरीर हूँ,
न ही सूक्ष्म और न ही कारण शरीर बल्कि ये मेरे केवल  वस्त्र मात्र हैं जिनको  मैं अपने
कर्म,विचार और भावों  के द्वारा बदलता रहता हूँ,  मेरा वास्तविक स्वरूप निर्गुण, निराकार ,
नित्य, अजर, अमर, 'सत्-चित आनंद है ' और यह आत्मज्ञान मेरे स्थूल शरीरान्त तक बना
रहे  तो  नवीन शरीर ग्रहण करते समय भी  मैं पिछला सब याद रख सकता हूँ व  आनंद में
रमण करते हुए अपना विकास निरंतर  ही करते रह सकता हूँ .निरंतर विकास का अर्थ यहाँ
निष्काम कर्मयोग के द्वारा प्रारब्ध या 'कारण शरीर' के क्षय करने से है .'कारण  शरीर' की वजह
से ही स्थूल शरीर के बंधन में बंधना पड़ता है. 'कारण शरीर' के पूर्णतया क्षय होने पर  स्थूल
शरीर की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है,जिसे जीव की मुक्ति माना जाता है.


परन्तु, आत्मज्ञान न होने की स्थिति में  हम खुद  को अज्ञानवश स्थूल शरीर ही  मान
लेते हैं इसीलिए हमारे  मस्तिष्क में जाने अनजाने यही 'command'  जाता रहता  है कि
स्थूल  शरीर के मरण के साथ ही हमारा भी मरण हो जायेगा. जिस कारण हम स्थूल  शरीर
की मृत्यु के समय मृत्यु भय से ग्रस्त हो अपनी तमाम याददाश्त को ही विस्मृत कर डालतें हैं
और जब नवीन शरीर ग्रहण करते हैं तो पिछला कुछ भी याद नहीं रहता. जबकि ऐसा बचपन
या जवानी की समाप्ति पर नहीं होता.  क्यूंकि बचपन और जवानी की मृत्यु हम सहज मानते हैं
और मस्तिष्क को यह 'command'  कभी नहीं देते कि हम मर गए हैं, इससे ह्मारी याददाश्त
बनी रहती है. ऐसे ही  सोते वक़्त भी  हम यह  कदापि महसूस नहीं करते कि सोने से हम मर
जायेंगें. इसलिये सोकर उठने पर याददाश्त बनी रहती है.  स्थूल शरीर की मृत्यु  के समय
केवल अज्ञान के कारण ही हम खुद के मरने का  गलत 'command'  दे बैठते हैं. फलस्वरूप
 'याददाश्त' का लोप हो  जाता है और सम्पूर्ण ज्ञान विस्मृत हो जाता है.

आत्मज्ञान के द्वारा  हम स्वयं के 'आनंद' स्वरुप का बोध कर पाते हैं .आनंद का  अक्षय
स्रोत अंत:करण में ही  निहित  है. आत्म बोध से  'कारण शरीर' का स्वाभाविक रूप से  क्षय होता है.
आत्मज्ञान रुपी विचार प्रवाह से  आनंद की तरंगें हृदय में उठने लगतीं हैं. जब यह प्रवाह
हृदय में अनवरत व नित्य  प्रकट होने  लगता है तो  दिव्य सरिता  का रूप धारण कर हृदय
की कलुषता  का निवारण करता रहता  है और हृदय को पवित्र पावन बना देता  है,जिससे हृदय
में उपरोक्त वर्णित अवधपुरी का भी  वास होने लगता है. यह आत्मज्ञान रुपी विचार प्रवाह की
दिव्य सरिता ही 'सरयू' नदी  है.

आत्मा  का   ज्ञान   वास्तव  में  एक आश्चर्य ही है. भगवद्गीता (अध्याय २ श्लोक २९) में
इसका निरूपण निम्न प्रकार से किया गया है.

                "कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा  को आश्चर्य की भांति देखता है 
                  और  वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्व का आश्चर्य  की भांति 
                  वर्णन करता है  तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भांति 
                  सुनता है  और कोई  कोई तो सुनकर भी इसे नहीं जानता "

आश्चर्य इसलिये है कि आत्मा के  विलक्षण आनंद के अनुभव की किसी भी  अन्य आनंद से
तुलना ही नहीं की जा सकती. .आत्मज्ञान रूपी    'सरयू' के जल को  इसी वजह से अति गहन
और गंभीर बताया गया  है.

कहते हैं सरयू के जल में राम जी यानि 'सत्-चित आनंद ' ने 'जल समाधि' ली हुई है.
जिस कारण इसके जल का सेवन करने से 'चिर स्थाई आनंद' का अनोखा स्वाद भी
मिलता है और जीव सहज  शांति  को प्राप्त हो जाता  है. फिर चलिए, अब सोचना क्या है,
पवित्र पावन सरयू नदी  के घाट पर  नित्य स्नान, ध्यान और आचमन कर असीम आनंद
में गोते लगा लिए जाएँ. 

आत्मज्ञान के और अधिक अनुसंधान हेतू श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय-२ (सांख्य योग) का अध्ययन
किया जा सकता है.''साख्य योग" में आत्मज्ञान का समन्वय इस प्रकार से किया गया है जिससे
हम जीवन में निष्काम कर्मयोग प्रतिपादित करने में भी सक्षम हो सकें. इसीलिए भगवद्गीता में
सांख्य योग के पश्चात ही कर्मयोग का निरूपण अध्याय-३ में किया गया है.



राम जी ,दशरथ जी व कौसल्या जी का तत्व चिंतन मेरी पोस्ट 'रामजन्म- आध्यात्मिक चिंतन-१'
में किया गया है.
चारो युगों अर्थात सत् युग ,त्रेता ,द्वापर व कलियुग का तत्व चिंतन मेरी पोस्ट
'रामजन्म -आधात्मिक चिंतन -२'  में किया गया है. तथा
अवधपुरी/अयोध्यापुरी,उपवास का तत्व चिंतन मेरी पोस्ट 'रामजन्म -आध्यात्मिक चिंतन-३' में
किया गया है.
सुधिजन उपरोक्त पोस्टों  का भी अवलोकन कर अपने सुविचारों  की आनंद वृष्टि कर सकते हैं.

मेरा यह सादर अनुरोध है कि उपरोक्त पिछली  पोस्टों का बार बार अवलोकन किया जाये,
जिससे राम, दशरथ, कौसल्या, त्रेता युग, अवधपुरी की स्थापना 'सरयू' जी की कृपा से हमारे हृदय
में ही हो, और 'राम मंदिर'  के लिए हमें दर दर न भटकना पड़े. यदि हृदय में 'राम मंदिर'
का सही प्रकार से  निर्माण हो जाये तो भौतिक जगत में राम मंदिर कहीं भी हो, इसका कोई
फर्क पड़नेवाला नहीं है.कहतें है आस्था और विश्वास से जैसा अंतर्जगत में हो वैसा ब्राह्य
जगत में भी घटित हो जाता है.

सुधिजन इस विषय कि 'रामजन्म और राम मंदिर का क्या स्वरुप हो' पर विस्तार से
अपने अपने विचार प्रकट करें तभी  इन  पोस्टों की सार्थकता का भी अनुभव हो पायेगा.

ओम् सच्चिदानन्देश्वराय नमो नम:

                 







    

Thursday, May 5, 2011

रामजन्म - आध्यात्मिक चिंतन - ३

आनंद का चिंतन करना अदभुत है,  मंगलकारी है . आनंद का एक एक पद, एक एक शब्द,
एक एक अक्षर मधुरातिमधुर  है. आप सुधिजनों ने मेरी पोस्ट 'रामजन्म - आध्यात्मिक चिंतन- १' 
'रामजन्मआध्यात्मिक चिंतन- २'  पर जो टिप्पणियाँ कीं उनमें आनंद ही आनंद समाया है  ,
जिससे मन आनंद निमग्न हों गया है. और विशाल भाई के इन उद्गारों ने  " सत आनंद ,
चित आनंद, असीम आनंद,बोध स्वरूपानंद ,ज्ञान स्वरूपानंद,अनिर्वचनीय  आनंद,अचिन्त्य आनंद,
अपरिमेय आनंद,आनंदमय आनंद, बस आनंद ही आनंद." ने तो मानो आनंद की बरसात ही
कर दी है.

आईये चलिये आनंद की इसी तरंग में ही अब  आगे बढते हैं. राम,  दशरथ, कौशल्या, युगों का
तात्विक चिंतन कर लेने के पश्चात अब 'अवधपुरी' या 'अयोध्यापुरी' का तत्व चिंतन करने का
प्रयास करते हैं. गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरितमानस में लिखते हैं:-

                              नौमि   भौम   वार   मधुमासा,  अवधपुरी    यह    चरित    प्रकासा 
                              बंदउ  अवधपुरी अति पावनि, सरजू सरि कलि कलुष नसावनि

अवधपुरी का शाब्दिक अर्थ है ऐसी पुरी जहाँ कोई वध न हो. इसी प्रकार इसका पर्यायवाची
अयोध्यापुरी का भी अर्थ हैं ऐसी पुरी  जहाँ कोई युद्ध न हो. श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय ५, श्लोक १३)
 के अनुसार 'नवद्वारे पुरे देही'  कहकर इस नौ छिद्रों वाले  शरीर को ही नवद्वार रुपी पुरी
बतलाया गया है जिसमें  जीव यानि 'देही' का निवास है.

अपने अपने दृष्टिकोण,भावों और विचारों से हम अपने ही अंदर 'अवधपुरी' या 'लंका पुरी' की
स्थापना कर लेतें हैं. यदि हम स्वयं को शरीर मानकर अपने ही  अहंकाररुपी रावण के साम्राज्य
में आसुरी सम्पदा ईर्ष्या, द्वेष,चिंता, दुराशा,दंभ आदि को लेकर जीते हैं तो लंकापुरी की स्थापना
हो जाती हैं.परन्तु, अवधपुरी की स्थापना के लिए अपने को शरीर मानना छोड़ हमें सद्विवेक का
अनुसरण कर  'आत्मज्ञान'  की आवश्यकता है.

हमारे शास्त्रों में शरीर को  आत्मा का एक  आवरण मात्र बताया गया है. मै जब अपने
को शरीर मानता हूँ तो उसका 'वध' अथवा मरण  अवश्यम्भावी  है.जिस कारण मृत्यु भय
मुझे सताने लगता है.मृत्यु भय के रहते हृदय में 'रामजन्म' यानि चिर स्थाई आनंद का उदय
होना सम्भव ही नहीं है मृत्यु भय के कारण ही मै जीवन में तरह तरह की कुचेष्टायें  करता हूँ.
समस्त भ्रष्ट आचरण की जननी ऐसी कुचेष्टाएं ही हैं .परन्तु , जब मै स्वयं को
'सत्-चित-आनंद' परमात्मा का अंश 'आत्मा'  मानता हूँ तो आत्मा के  अवध होने के कारण मुझे
यह समझ आ जाता है कि मेरी   मृत्यु किसी भी प्रकार से भी सम्भव नहीं है. मै मृत्यु के
भय से निजात पा अपने ही स्वरुप 'आनंद' का  निर्बाध रूप से चिंतन व अनुभव करने में
समर्थ  हो जाता हूँ.  श्रीमद्भगवद्गीता में आत्मा के बारे में कहा गया है :-

                                  नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः
                                  न  चैनं  क्लेदयन्त्यापो  न शोषयति मारुत:
अर्थात इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती,जल गला नहीं सकता,
और वायु सुखा नहीं सकती.

आत्मा का स्वरुप अजर है, अमर है,नित्य है, 'सत्-चित-आनंद' है, अवध है, अर्थात आत्मा का
'वध' कभी भी सम्भव नहीं है  जब इन भावों और विचारों का विवेकपूर्ण पोषण कर मै अपने
हृदय में गहन चिंतन द्वारा अच्छी प्रकार से स्थापित कर लेता हूँ तभी मेरे हृदय में 'अवधपुरी'   
स्थापित होने  लगती है.  मृत्यु का डर मेरे  हृदय से निकल जाता है ,  हृदय  शांत हो जाता है. 
मेरे विचारों और भावों में भी कोई किसी प्रकार का  संघर्ष या युद्ध नहीं रह जाता ,  इसीलिए 
अवधपुरी को  'अयोध्यापुरी' भी कहा गया है. ऐसी अयोध्या या अवधपुरी में ही राम यानि
'सत्-चित-आनंद' का जन्म नवमी तिथि, दिन मंगलवार (भौम) और मधुमास यानि बसंत ऋतु
में होता  है.

नवमी तिथि,मंगलवार और मधुमास  हृदय की उन स्थिति का सूचक हैं जब आत्मज्ञान की
साधना ,अभ्यास और उपवास परिपक्वता को प्राप्त हो,और हृदय में मंगल व उल्लास का सर्वत्र
संचार हो जाये.  'उपवास' का अर्थ   केवल कुछ खाना पीना छोडना मात्र नहीं ,बल्कि
मन बुद्धि के साथ राम के निकट जप, ध्यान और उपासना के द्वारा  वास करना है .
'सत्-चित-आनंद' का भाव तब  विभिन्न रंगों से मन को सदा सराबोर  किये रखता है और
मन  सहज ही गा उठता है :-

                        होली खेले रघुबीरा,   अवध में होली खेले रघुबीरा

ऐसी पावन अवधपुरी को हमारा शत शत नमन है, जिसमें आत्मज्ञान रूपी 'सरजू' नदी सदा
प्रवाहित होती रहती  है, जो 'कलियुग' की कलुषता  का हृदय से नाश करती है और जिसमें 
राम का जन्म होकर   राम चरित्र का प्रकाश हो पाता  है. अफ़सोस!  ऐसे विकार रहित प्रभु
के हृदय में रहते भी जगत के सब जीव दीन और दुःखी है, नाम का निरूपण करके नाम
का यत्न पूर्वक जप रुपी  साधन करने से वही राम ऐसे प्रकट हो जाता है जैसे रत्न के
जानने से उसका मूल्य. इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं :-
        
               अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी , सकल जीव जग दीन दुखारी
               नाम निरूपन  नाम  जतन ते , सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें

राम,  दशरथ व कौशल्या  के बारे में मेरी पोस्ट 'रामजन्म-आध्यात्मिक चिंतन-१' तथा चारो
युगों (सतयुग,द्वापर ,त्रेता एवम कलियुग) के बारे में मेरी  पिछली  पोस्ट
'रामजन्म-आध्यात्मिक चिंतन-२' में  प्रकाश डाला गया है.जो सुधिजन चाहें वे  इन पोस्टों 
का अवलोकन कर अपने सुविचार प्रकट कर आनंद की वृष्टि कर  सकते हैं.